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________________ ८० व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र वितान अथवा ताना सूक्ष्म (बारीक) सूत का और सैकड़ों प्रकार की कलाओं से चित्रित था। जवणियंयवनिका—पर्दा । अंछावेति—खिंचवाता है, लगवाता है। अत्थरय-मउय-मसूरगोत्थगं—वह अस्तर (अन्दर के वस्त्र), एवं कोमल मसूरक (तकियों) से युक्त था। सेयवत्थपच्चत्थुतं—उस पर गद्दीयुक्त श्वेत वस्त्र ढका हुआ था। वेइयं-वेग वाली। सिद्धत्थग—सिद्धार्थक–सरसों। हरियालिय—हरी दूब। पुवन्नत्थेसुपहले बिछाए हुए। स्वप्नपाठकों से स्वप्नफल और उनके द्वारा समाधान ३२. तए णं बले राया पभावतिं देविं जवणियंतरियं ठावेइ, ठा० २ पुप्फ-फलपडिपुण्णहत्थे परेणं विणएणं ते सुविणलक्खणपाढए एवं वयासी—एवं खलु देवाणुप्पिया ! पभावती देवी अज तंसि तारिसगंसि वासघरंसि जाव सीहं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्धा, तं णं देवाणुप्पिया ! एयस्स ओरालस्स जाव के मन्ने कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भविस्सति ? । [३२] तत्पश्चात् राजा बल ने प्रभावती देवी को (बुलाकर) यवनिका की आड़ में बिठाया। फिर पुष्प और फल हाथों में भर कर बल राजा ने अत्यन्त विनयपूर्वक उन स्वप्नलक्षणपाठकों से इस प्रकार कहा"देवानुप्रियो ! आज प्रभावती देवी तथारूप उस वासगृह में शयन करते हुए यावत् स्वप्न में सिंह (तथारूप) देखकर जागृत हुई है। तो हे देवानुप्रियो ! इस उदार यावत् कल्याणकारक स्वप्न का क्या फलविशेष होगा? ३३.[१] तए णं ते सुविणलक्खणपाढगा बलस्स रण्णो अंतियं एयमटुं सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठ० तं० सुविणं ओगिण्हंति, तं० ओ० २ ईहं पविसंति, ईहं पविसित्ता तस्स सुविणस्स अत्थोग्गहणं करेंति, त० क० १ अन्नमन्त्रेणं सद्धिं संचालेंति अ० स० २ तस्स सुविणस्स लद्धट्ठा गहियट्ठा पुच्छियट्ठा विणिच्छियट्ठा अभिगयट्ठा बलस्स रण्णो पुरओ सुविणसत्थाइ उच्चारेमाणा एवं उच्चारेमाणा वयासी [३३-१] इस पर बल राजा से इस (स्वप्नफल सम्बन्धी) प्रश्न को सुनकर एवं हृदय में अवधारण कर वे स्वप्नलक्षणपाठक प्रसन्न एवं सन्तुष्ट हुए। उन्होंने उस स्वप्न के विषय में सामान्य विचार (अवग्रह) किया, फिर विशेष विचार (ईहा) में प्रविष्ट हुए, तत्पश्चात् उस स्वप्न के अर्थ का निश्चय किया। फिर परस्पर एकदूसरे के साथ विचार-चर्चा की, फिर उस स्वप्न का अर्थ स्वयं जाना, दूसरे से ग्रहण किया, एक दूसरे से पूछकर शंका-समाधान किया, अर्थ का निश्चय किया और अर्थ पूर्णतया मस्तिष्क में जमाया। फिर बल राजा के समक्ष स्वप्नशास्त्रों का उच्चारण करते हुए इस प्रकार बोले [२] "एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं सुविणसत्थंसि बायालीसं सुविणा, तीसं महासुविणा, बावत्तरि सव्वसुविणा दिट्ठा। तत्थ णं देवाणुप्पिया ! तित्थयरमायरो वा चक्कवट्टिमायरो वा तित्थगरंसि वा चक्कवट्टिसि वा गब्भं वक्कममाणंसि एएसिंतीसाए महासुविणाणं इमे चोद्दस महासुविणे पासित्ताणं १. भगवती. अ. वृत्ति.. पत्र ५४२
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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