SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 115
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८२ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र ने जो यह स्वप्न देखा है, वह उदार है, यावत् आरोग्य, तुष्टि, दीर्घायु एवं कल्याणकारक यावत् स्वप्न देखा है। विवेचन—राजा की स्वप्नफलजिज्ञासा और स्वप्नपाठकों द्वारा समाधान—प्रस्तुत (३२-३३) दो सूत्रों में निम्नलिखित घटनाओं का प्रतिपादन किया गया है—(१) राजा के द्वारा प्रभावती रानी को देखे हुए स्वप्न के फल की जिज्ञासा, (२) स्वप्नपाठकों द्वारा सामान्य-विशेषरूप से स्वप्न के सम्बन्ध में ऊहापोह एवं परस्पर विचार-विनिमय करके फल का निश्चय, (३) स्वप्नपाठकों द्वारा स्वप्नशास्त्रानुसार स्वप्नों के प्रकार का एवं महास्वप्नों को देखने वाली विभिन्न माताओं का विश्लेषण तथा (४) प्रभावती रानी द्वारा देखे गये एक महास्वप्न के प्रकार का निर्णय, (५) उक्त महास्वप्न के फलस्वरूप प्रभावती देवी के राज्याधिपति या भावितात्मा अनगार के रूप में पुत्र होने का भविष्य-कथन। विमान और भवन : दो स्वप्न या एक—तीर्थंकर या चक्रवर्ती जब माता के गर्भ में आते हैं, तब उनकी माता १४ महास्वप्न देखती हैं। उनमें से १२वें स्वप्न में दो शब्द हैं—विमान और भवन। उसका आशय यह है कि जो जीव देवलोक से आकर तीर्थंकर के रूप में जन्म लेता है, उसकी माता स्वप्न में 'विमान' देखती है और जो जीव नरक से आकर तीर्थंकर में जन्म लेता है, उसकी माता स्वप्न में 'भवन' देखती है। राजा द्वारा स्वप्नपाठक सत्कृत एवं रानी को स्वप्नफल सुना कर प्रोत्साहन ३४. तए णं से बले राया सुविणलक्खणपाढगाणं अंतिए एयमढं सोच्चा निसम्म हट्टतुट्ठकरयल जाव कट्ट ते सुविणलक्खणपाढगे एवं वयासी—'एवमेयं देवाणुप्पिया ! जाव से जहेयं तुब्भे वदह', त्ति कट्ट तं सुविणं सम्मं पडिच्छति, तं० प० २ सुविणलक्खणपाढए विउलेणं असण-पाण-खाइमसाइम-पुप्फ-वत्थ-गंधमल्लालंकारेणं सक्कारेति सम्माणेति, स० २ विउलं जीवियारिहं पीतिदाणं दलयति, वि० द० २ पडिविसज्जेति, पडि० २ सीहासणाओ अब्भुटेति, सी० अ० २ जेणेव पभावती देवी तेणेव उवागच्छति, ते० उ० २ पभावतिं देविं ताहिं इट्ठाहिं जाव संलवमाणे. संलवमाणे एवं वयासी—"एवं खलु देवाणुप्पिए ! सुविणसत्थंसि बायालीसं सुविणा, तीसं महासुविणा, बावत्तरि सव्वसुविणा दिट्ठा। तत्थ णं देवाणुप्पिए ! तित्थगरमायरो वा चक्कवट्टिमायरो वा, तं चेव जाव अन्नयरं एगं महासुविणं पासित्ताणं पडिबुझंति। इमे य णं तुमे देवाणुप्पिए ! एगे महासुविणे दिढे। तं ओराले णं तुमे देवी ! सुविणे दिढे जाव रज्जवती राया भविस्सति अणगारे वा भावियप्पा, तं ओराले णं तुमे देवी ! सुविणे दिढे" त्ति कट्ट पभावतिं देविं ताहिं इट्ठाहिं जाव दोच्चं पि तच्चं पि अणुबूहइ। [३४] तत्पश्चात् स्वप्नलक्षणपाठकों से इस (उपर्युक्त) स्वप्नफल को सुनकर एवं हृदय में अवधारण कर बल राजा अत्यन्त प्रसन्न एवं सन्तुष्ट हुआ। उसने हाथ जोड़ कर यावत् उन स्वप्नलक्षणपाठकों से इस प्रकार कहा-“हे देवानुप्रियो ! आपने जैसा स्वप्नफल बताया, यावत् वह उसी प्रकार है।" इस प्रकार कह कर स्वप्न का अर्थ सम्यक् प्रकार से स्वीकार किया। फिर उन स्वप्नलक्षणपाठकों को विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तथा पुष्प, वस्त्र, गन्ध, माला और अलंकारों से सत्कारित-सम्मानित किया; जीविका के योग्य प्रीतिदान दिया एवं सबको विदा किया। १. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. २, पृ. ५४२-५४३ २. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ५४३
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy