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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र तक) में विभिन्न पहलुओं से तमस्काय के सम्बंध में प्रश्न उठाकर उनका समाधान किया गया है।
तमस्काय की संक्षिप्त रूपरेखा--तमस्काय का अर्थ है—अन्धकारमय पुद्गलों का समूह । तमस्काय पृथ्वीरज:स्कन्धरूप नहीं, किन्तु उदकरज:स्कन्धरूप है। क्योंकि जल अप्रकाशक होता है, दोनों (अप्काय
और तमस्काय) का समान स्वभाव होने से तमस्काय का परिणामी कारण अप्काय ही हो सकता है, क्योंकि वह अप्काय का ही परिणाम है। तमस्काय एकप्रदेशश्रेणीरूप है, इसका अर्थ यही है कि वह समभित्ति वाली श्रेणीरूप है। एक आकाश-प्रदेश की श्रेणीरूप नहीं। फिर तमस्काय का संस्थान मिट्टी के सकोरे के (मूल का) आकार-सा या ऊपर मुर्गे के पिंजरे-सा है। वह दो प्रकार का है—संख्येय विस्तृत और असंख्येय विस्तृत पहला जलान्त से प्रारम्भ होकर संख्येय योजन तक फैला हुआ है, दूसरा असंख्येय योजन तक विस्तृत और असंख्येय द्वीपों को घेरे हुए है। तमस्काय इतना अत्यधिक विस्तृत है कि कोई देव ६ महीने तक अपनी उत्कृष्ट शीघ्र दिव्यगति से चले तो भी वह संख्येय योजन विस्तृत तमस्काय तक पहुँचता है, असंख्येय योजन विस्तृत तक पहुंचना बाकी रह जाता है।
तमस्काय में न तो घर हैं, और न गृहापण हैं और न ही ग्राम, नगर, सन्निवेशादि हैं, किन्तु वहाँ बड़े-बड़े मेघ उठते हैं, उमड़ते हैं, गर्जते हैं, बरसते हैं। बिजली भी चमकती है। देव, असुर या नागकुमार ये सब कार्य करते हैं, विग्रहगतिसमापन्न बादर पृथ्वी या अग्नि को छोड़कर तमस्काय में न बादर पृथ्वीकाय है, न बादर अग्निकाय । तमस्काय में चन्द्र-सूर्यादि नहीं हैं, किन्तु उसके आस-पास में हैं, उनकी प्रभा तमस्काय में पड़ती भी है, किन्तु तमस्काय के परिणाम से परिणत हो जाने के कारण नहीं-जैसी है। तमस्काय काला, भयंकर काला और रोमहर्षक तथा त्रासजनक है। देवता भी उसे देखकर घबरा जाते हैं। यदि कोई देव साहस करके उसमें घुस भी जाय तो भी वह भय के मारे कायगति से अत्यन्त तेजी से और मनोगति से अतिशीघ्र बाहर निकल जाता है। तमस्काय के तम आदि तेरह सार्थक नाम हैं। तमस्काय पानी, जीव और पुद्गलों का परिणाम है। जलरूप होने के कारण वहाँ बादर वायु, वनस्पति और त्रसजीव उत्पन्न होते हैं। इनके अतिरिक्त अन्य जीवों का स्वस्थान न होने के कारण उनकी उत्पत्ति तमस्काय में सम्भव नहीं है।'
कठिन शब्दों की व्याख्या-बलाहया संसेयंति सम्मुच्छंति, वासं वासंति महामेघ संस्वेद को प्राप्त होते हैं, अर्थात्-तज्जनित पुद्गलों के स्नेह से सम्मूर्च्छित होते (उठते-उमड़ते) हैं, क्योंकि मेघ के पुद्गलों के मिलने से ही उनकी तदाकाररूप से उत्पत्ति होती है और फिर वर्षा होती है। बादर विद्युत' यहाँ तेजस्कायिक नहीं है, अपितु देव के प्रभाव से उत्पन्न भास्वर (दीप्तिमान्) पुद्गलों का समूह है। पलिपस्सतो—परिपार्श्व मेंआसपास में। उत्तासणए—उग्र त्रास देने वाला। खुभाएजा क्षुब्ध हो जाता है, घबरा जाता है। अभिसमागच्छेज्जा—प्रवेश करता है। उववण्णपुव्वा—पहले उत्पन्न हो चुके ।असई अदुवा अणंतक्खुत्तोअनेक बार अथवा अनन्त बार । देववूहे-चक्रव्यूहवत् देवों के लिए भी दुर्भेद्य व्यूहसम । देवपरिघ—देवों के गमन में बाधक परिघ-परिखा की तरह।
१. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक २६८ से २७० तक
(ख) वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मू.पा.टि.) भा. १, पृ. २४७ से २५० तक २. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक २६८ से २७० तक