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________________ छठा शतक : उद्देशक-४ (१) उपपातविरहकाल में पूर्वोत्पन्न जीवों की संख्या असंख्यात होने से सभी सप्रदेश होते हैं, अत: वे सब सप्रदेश हैं। (२) पूर्वोत्पन्न नैरयिकों में जब एक नया नैरयिक उत्पन्न होता है, तब उसकी प्रथम समय की उत्पत्ति की अपेक्षा से वह 'अप्रदेश' कहलाता है। इसके सिवाय बाकी नैरयिक जिनकी उत्पत्ति को दो-तीन-चार आदि समय हो गए हैं, वे 'सप्रदेश' कहलाते हैं। ___ (३) एक-दो-तीन आदि नैरयिकजीव एक समय में उत्पन्न भी होते हैं, उसी प्रमाण में मरते भी हैं', इसीलिए वे सब 'अप्रदेश' कहलाते हैं तथा पूर्वोत्पन्न और उत्पद्यमान जीव बहुत होने से वे सब सप्रदेश भी कहलाते हैं। इसीलिए मूलपाठ में नैरयिकों के क्रमशः तीन भंगों का संकेत है। पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रियजीवों में दो भंग होते हैं—वे कदाचित् सप्रदेश भी होते हैं और कदाचित् अप्रदेश भी। द्वीन्द्रियों से लेकर सिद्धपर्यन्त पूर्ववत् (नैरयिकों की तरह) तीन-तीन भंग होते हैं। २. आहारकद्वार - आहारक और अनाहारक शब्दों से विशेषित दोनों प्रकार के जीवों के प्रत्येक के एकवचन और बहुवचन को लेकर क्रमशः एक-एक दण्डक यानी दो-दो दण्डक कहने चाहिए। जो जीव विग्रहगति में या केवलीसमुद्घात में अनाहारक होकर फिर आहारकत्व को प्राप्त करता है, वह आहारककाल में प्रथम समय वाला जीव 'अप्रदेश' और प्रथम समय के अतिरिक्त द्वितीय-तृतीयादि समयवर्ती जीव सप्रदेश कहलाता है। इसीलिए मूलपाठ में कहा गया है—कदाचित् कोई-सप्रदेश और कदाचित् कोई अप्रदेश होता है। इसी प्रकार सभी आदिवाले (शुरू होने वाले) भावों में एक वचन में जान लेना चाहिए। अनादि वाले भावों में तो सभी नियमत:सप्रदेश होते है। बहुवचन वाले दण्डक में भी इसी प्रकार—कदाचित् सप्रदेश भी और कदाचित् अप्रदेश भी होते हैं। जैसे—आहारकपने में रहे हुए बहुत जीव होने से उनका सप्रदेशत्व है तथा बहुत से जीव विग्रहगति के पश्चात् प्रथम समय में तुरन्त ही अनाहारक होने से उनका अप्रदेशत्व हैतथा बहुत से जीव विग्रहगति पश्चात् प्रथम समय में तुरन्त ही अनाहारक होने से उनका अप्रदेशत्व भी है। इस प्रकार आहारक जीवों में सप्रदेशत्व और अप्रदेशत्व ये दोनों पाये जाते हैं। इसी प्रकार एकेन्द्रिय (पृथ्विकायिक आदि) जीवों के लिए भी कहना चाहिए। सिद्ध अनाहारक होने से उनमें आहारकत्व नहीं होता है। अतः सिद्ध पद और एकेन्द्रिय को छोड़कर नैरयिकादि जीवों में मूलपाठोक्त तीन भंग (१. सभी सप्रदेश, अथवा २. बहुत सप्रदेश और एक अप्रदेश, अथवा ३. बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश) कहने चाहिए। अनाहारक के भी इसी प्रकार एकवचन-बहुवचन को लेकर दो दण्डक कहने चाहिए। विग्रहगतिसमापन्न जीव, समुद्घातगत केवली, अयोगी केवली और सिद्ध, ये सब अनाहारक होते हैं। ये जब अनाहारकत्व में प्रथम समय में होते हैं तो 'अप्रदेश' और द्वितीय-तृतीय आदि समय में होते हैं तो 'सप्रदेश' कहलाते हैं। बहुवचन के दण्डक में जीव और एकेन्द्रिय को नहीं लेना चाहिए, क्योंकि इन दोनों पदों में बहुत-सप्रदेश और बहुत अप्रदेश,' यह एक ही भंग पाया जाता है; क्योंकि इन दोनों पदों में विग्रहगति-समापन्न अनेक जीव सप्रदेश और अनेक जीव अप्रदेश १. एगो व दो व तिण्णि व संखमसंख च एगसमएणं। उववजंते बइया, उव्वटुंता वि एमेव ॥२॥ - भगवती. अ. वृत्ति, पत्रांक २६१ में उद्धृत
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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