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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र तियभंगो। भासामणपज्जत्तीए जहा सण्णी।
[१९-१] आहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति और श्वासोच्छ्वास-पर्याप्ति वाले जीवों में जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग कहने चाहिए। भाषापर्याप्ति और मनःपर्याप्ति वाले जीवों का कथन संज्ञी जीवों के समान कहना चाहिए।
[२] आहारअपजत्तीए जहा अणाहारगा। सरीरअपजत्तीए इंदियअपजत्तीए आणापाणअपज्जत्तीए जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो, नेरइय-देव-मणुएहिं छब्भंगा।भासामणअपज्जत्तीए जीवादिओ तियभंगो, णेरइय-देव-मणुएहिं छब्भंगा।
[१९-२] आहारअपर्याप्ति वाले जीवों का कथन अनाहारक जीवों के समान कहना चाहिए। शरीरअपर्याप्ति, इन्द्रिय-अपर्याप्ति और श्वासोच्छ्वास-अपर्याप्ति वाले जीवों में जीव और एकेन्द्रिय को छोड़ तीन भंग कहने चाहिए। (अपर्याप्तक) नैरयिक, देव और मनुष्यों में छह भंग कहने चाहिए। भाषा-अपर्याप्ति और मन:अपर्याप्ति वाले जीवों में जीव आदि तीन भंग कहने चाहिए। नैरयिक, देव और मनुष्य में छह भंग जानने चाहिए। २०. गाहा - सपदेसाऽऽहारग भविय सण्णि लेस्सा दिट्ठी संजय कसाए।
णाणे जोगुवओगे वेदे य सरीर पजत्ती ॥१॥ [२०. संग्रहणी गाथा का अर्थ-] सप्रदेश, आहारक, भव्य, संज्ञी, लेश्या, दृष्टि, संयत, कषाय, ज्ञान, योग, उपयोग, वेद, शरीर और पर्याप्ति, इन चौदह द्वारों का कथन ऊपर किया गया है। .
विवेचन आहारक आदि जीवों में सप्रदेश-अप्रदेश-वक्तव्यता—प्रस्तुत बीस सूत्रों में (सू. १ से २० तक) आहारक आदि १४ द्वारों में सप्रदेश-अप्रदेश की दृष्टि से विविध भंगों की प्ररूपणा की गई है।
सप्रदेश आदि चौदह द्वार - (१) सप्रदेशद्वार - कालादेश का अर्थ है—काल की अपेक्षा से। विभागरहित को अप्रदेश और विभागसहित को सप्रदेश कहते हैं। समुच्चय में जीव अनादि है, इसीलिए उसकी स्थिति अनन्त समय की है; इसलिए वह सप्रदेश है। जो जिस भाव (पर्याय) में प्रथम-समयवर्ती होता है, वह काल की अपेक्षा अप्रदेश और एक समय से अधिक दो-तीन-चार आदि समयों में वर्तने वाला काल की अपेक्षा सप्रदेश होता है।
कालादेश की अपेक्षा जीवों में भंग- जिस नैरयिक जीव को उत्पन्न हुए एक समय हुआ है, वह कालादेश से अप्रदेश है और प्रथम समय के पश्चात् द्वितीय-तृतीयादि समयवर्ती नैरयिक सप्रदेश है। इसी प्रकार औधिक जीव, नैरयिक आदि २४ और सिद्ध के मिलाकर २६ दण्डकों में एकवचन को लेकर कदाचित् अप्रदेश, कदाचित् सप्रदेश, ये दो-दो भंग होते हैं। इन्हीं २६ दण्डकों में बहुचवन को लेकर विचार करने पर तीन भंग होते हैं - १. जो जस्स पढमसमए वट्टइ भवस्स सो उ अपएसो। अण्णम्मि वट्टमाणे कालाएसेण सपएसो ॥१॥
- भगवती. अ. वृत्ति, पत्रांक २६१ में उद्धत