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________________ ४४ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र मिलते हैं । नैरयिकादि तथा द्वीन्द्रिय आदि जीवों में थोड़े जीवों की उत्पत्ति होती है। अतएव उनमें एक-दो आदि अनाहारक होने से छह भंग सम्भवित होते हैं, जिनका मूलपाठ में उल्लेख है। यहाँ एकवचन की अपेक्षा दो भंग नहीं होते, क्योंकि यहाँ बहुवचन का अधिकार चलता है। सिद्धों में तीन भंग होते हैं, उनमें सप्रदेशपद बहुवचननान्त ही सम्भवित है। . ३. भव्यद्वार-भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक, इन दोनों के दो-दो दण्डक हैं जो औधिक (सामान्य) जीव-दण्डक की तरह हैं। इसमें भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक जीव नियमतः सप्रदेश होता है। क्योंकि भव्यत्व और अभव्य का प्रथम समय कभी नहीं होता। ये दोनों भाव अनादिपारिणामिक हैं। नैरयिक आदि जीव, सप्रदेश भी होता है, अप्रदेश भी। बहुत जीव तो सप्रदेश ही होते हैं। नैरयिक आदि जीवों में तीन भंग होते हैं। एकेन्द्रिय जीवों में बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश', यह एक ही भंग होता है। क्योंकि ये बहुत संख्या में ही प्रति समय उत्पन्न होते रहते हैं। यहाँ भव्य और अभव्य के प्रकरण में सिद्धपद नहीं कहना चाहिए, क्योंकि सिद्ध जीव न तो भव्य कहलाते हैं, न अभव्य ।वे नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक होते हैं। अत: नोभवसिद्धिकमोअभवसिद्धिक जीवों में एकवचन और बहुवचन को लेकर दो दण्डक कहने चाहिए। इसमें जीवपद और सिद्धपद, ये दो पद ही कहने चाहिए, क्योंकि नैरयिक आदि जीवों के साथ 'नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक' विशेषण लग नहीं सकता। इस दण्डक के बहुवचन की अपेक्षा तीन भंग मूलपाठ में बताए हैं। ४. संज्ञीद्वार-संज्ञी जीवों के एकवचन और बहुवचन को लेकर दो दण्डक होते हैं। बहुवचन के दण्डक में जीवादि पदों में तीन भंग होते हैं, यथा—(१) जिन संज्ञी जीवों को बहुत-सा समय उत्पन्न हुए हो गया है, वे कालादेश से सप्रदेश हैं । (२) उत्पादविरह के बाद जब एक जीव की उत्पत्ति होती है, तब उसको । प्रथम समय की अपेक्षा 'बहुत जीव सप्रदेश और एक जीव अप्रदेश' कहा जाता है और (३) जब बहुत जीवों की उत्पत्ति एक ही समय में होती है, तब बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश' यों कहा जाता है। इस प्रकार ये तीन भंग सभी पदों में जान लेने चाहिए। किन्तु इन दो दण्डकों में एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और सिद्ध पद नहीं कहना चाहिए, क्योंकि इनमें 'संज्ञी' विशेषण सम्भव ही नहीं है। असंज्ञी-जीवों में एकेन्द्रियपदों को छोड़कर दूसरे दण्डक में ये ही तीन भंग कहने चाहिए। पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रियों में सदा बहुत जीवों की उत्पत्ति होती है, इसलिए उन पदों में बहुत सप्रदेश.और बहुत अप्रदेश', यह एक ही भंग सम्भव है। नैरयिकों से लेकर व्यन्तर देवों तक असंज्ञी जीव उत्पन्न होते हैं, वे जब तक संज्ञी न हों तब तक उनका असंज्ञीपन जानना चाहिए। नैरयिक आदि में असंज्ञीपन कादाचित्क होने से एकत्व एवं बहुत्व की सम्भावना होने के कारण मूलपाठ में ६ भंग बताए गए हैं। असंज्ञी प्रकरण में ज्योतिष्क, वैमानिक और सिद्ध का कथन नहीं करना चाहिए, क्योंकि उनमें असंज्ञीपन सम्भव नहीं है। नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी विशेषण वाले जीवों के दो दण्डक कहने चाहिए। उसमें बहुवचन को लेकर द्वितीय दण्डक में जीव, मनुष्य और सिद्ध में उपर्युक्त तीन भंग कहने चाहिये, क्योंकि उनमें बहुत-से अवस्थित मिलते हैं। उनमें उत्पद्यमान एकादि सम्भव हैं। नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी के इन दो दण्डकों में जीव, मनुष्य और सिद्ध, ये तीन पद ही कहने चाहिए; क्योंकि नैरयिकादि जीवों के साथ 'नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी' विशेषण घटित नहीं हो सकता। ५. लेश्याद्वार - सलेश्य जीवों के दो दण्डकों में जीव और नैरयिकों का कथन औधिक दण्डक के
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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