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________________ ३८ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र सप्रदेश और एक अप्रदेश है, और ३. बहुत-से सप्रेश और बहुत-से अप्रदेश हैं। [२] एवं जाव' थणियकुमारा। [४-२] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक कहना चाहिए। ५.[१] पुढ़विकाइया णं भंते! किं सपदेसा, अपदेसा? गोयमा ! सपदेसा वि, अपदेसा वि। [५-१ प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव सप्रदेश हैं या अप्रदेश हैं ? [५-१ उ.] गौतम ! पृथ्वीकायिक जीव सप्रदेश भी हैं, अप्रदेश भी हैं। [२] एवं जाव' वणप्फतिकाइया। [५-२] इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक तक कहना चाहिए। ६. सेसा जहा नेरइया तहा जाव' सिद्धा। [६] जिस प्रकार नैरयिक जीवों का कथन किया गया है, उसी प्रकार सिद्धपर्यन्त शेष सभी जीवों के लिए कहना चाहिए। आहारक आदि से विशेषित जीवों में सप्रदेश-अप्रदेश-वक्तव्यता ७.[१] आहारगाणं जीवेगेंदियवज्जो तियभंगो। [७-१] जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर शेष सभी आहारक जीवों के लिए तीन भंग कहने चाहिए, यथा—(१) सभी सप्रदेश, (२) बहुत सप्रदेश और एक अप्रदेश, और (३) बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश। __ [२] अणाहारगाणं जीवेगिंदियवजा छब्भंगा एवं भाणियव्वा-सपदेसा वा, अपएसा वा, अहवा सपदेसे य अपदेसे य, अहवा सपदेसे य अपदेसा य, अहवा सपदेसा य अपदेसे य, अहवा सपदेसा य अपदेसा य। सिद्धेहिं तियभंगो। [७-२] अनाहारकं जीवों के लिए एकेन्द्रिय को छोड़कर छह भंग इस प्रकार कहने चाहिए, यथा(१) सभी सप्रदेश, (२) सभी अप्रदेश, (३) एक सप्रदेश और एक अप्रदेश, (४) एक सप्रदेश और बहुत अप्रदेश, (५) बहुत सप्रदेश और एक अप्रदेश और (६) बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश। सिद्धों के लिए तीन भंग कहने चाहिए। , १. 'जाव' पद यहाँ असुरकुमार' से लेकर 'स्तनितकुमार' तक का सूचक है। २. 'जाव' पद से यहाँ 'अप्कायिक से लेकर वनस्पतिकायिक' तक समझना। ३. 'जाव' पद से वैमानिक पर्यन्त के दण्डकों का ग्रहण समझ लेना चाहिए।
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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