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________________ ३६ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा पुरिसवेदगा, इत्थिवेदगा संखेजगुणा, अवेदगा अणंतगुणा, नपुंसगवेदगा अणंतगुणा। [२९-१ प्र.] हे भगवन् ! स्त्रीवेदक, पुरुषवेदक, नपुंसकवेदक और अवेदक; इन जीवों में से कौन किससे अल्प हैं बहत हैं तल्य हैं अथवा विशेषाधिक हैं? ___ [२९-१ उ.] गौतम! सबसे थोड़े जीव पुरुषवेदक हैं, उनसे संख्येयगुणा स्त्रीवेदक जीव हैं, उनसे अनन्तगुणा अवेदक हैं और उनसे भी अनन्तगुणा नपुंसकवेदक हैं। [२] एतेसिं सव्वेसिं पदाणं अप्पबहुगाई उच्चारेयव्वाइं जाव' सव्वत्थोवा जीवा अचरिमा, चरिमा अणंतगुणा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति०। ॥छट्ठसए : तइओ उद्दसो समत्तो॥ ____ [२९-२] इन (पूर्वोक्त) सर्व पदों (संयतादि से लेकर चरम तक चतुर्दश द्वारों में उक्त पदों) का (संयत पद से लेकर) यावत् सबसे थोड़े अचरम जीव हैं और उनसे चरमजीव अनन्तगुणा हैं पर्यन्त अल्पबहुत्व कहना चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; यों कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरने लगे। विवेचन—पन्द्रह द्वारों में उक्त जीवों के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा - तीसरे उद्देशक के अन्तिम सूत्र में सर्वप्रथम स्त्रीवेदकादि (पंचमद्वार) जीवों के अल्पबहुत्व का निरूपण करके इसी प्रकार से अन्य १४ द्वारों में उक्त चरमादिपर्यन्त जीवों के अल्पबहुत्व का अतिदेशपूर्वक निरूपण किया गया है। वेदकों के अल्पबहुत्व का स्पष्टीकरण-यहाँ पुरुषवेदक जीवों की अपेक्षा स्त्रीवेदक जीवों को संख्यातगुणा अधिक बताने का कारण यह है कि देवों की अपेक्षा देवियां बत्तीस गुणी और बत्तीस अधिक हैं, नर मनुष्य की अपेक्षा नारी सत्ताईस गुणी और सत्ताईस अधिक हैं और तिर्यञ्च नर की अपेक्षा तिर्यञ्चनी तीन गुणी और तीन अधिक हैं। स्त्रीवेदकों की अपेक्षा अवेदकों को अनन्त गुणा बताने का कारण यह कि अनिवृत्तिबादरसम्परायादि वाले जीव और सिद्ध जीव अनन्त हैं, इसलिए वे स्त्रीवेदकों की अपेक्षा अनन्तगुणा हैं। अवेदकों से नपुंसकवेदी अनन्तगुणा इसलिए हैं कि सिद्धों की अपेक्षा अनन्तकायिक जीव अनन्तगुणा हैं, जो सब नपुंसक हैं। संयतद्वार से चरमद्वार तक का अल्पबहुत्व-उपर्युक्त अल्पबहुत्व की तरह ही संयतद्वार से चरमद्वार तक १४ द्वारों का अल्पबहुत्व प्रज्ञापनासूत्र के तृतीय पद में उक्त वर्णन की तरह कहना चाहिए। यहाँ अचरम का अर्थ सिद्ध-अभव्यजीव लिया गया है और चरम का अर्थ भव्य । अतएव अचरम जीवों की अपेक्षा चरम जीव अनन्तगुणित कहे गये हैं। ॥छठा शतक : तृतीय उद्देशक समाप्त॥ १. 'जाव' पद यहाँ २९-१ सू. के प्रश्न की तरह ‘संजय' से लेकर चरिम-अचरिम तक प्रश्न और उत्तर का संयोजन कर __ लेने का सूचक है। २. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक २६० (ख) प्रज्ञापना, तृतीयपद, ८१ से १११ पृ. तक
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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