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छठा शतक : उद्देशक - ३
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गुणस्थानवर्ती होते हैं, तब ज्ञानावरणीयकर्म को नहीं बांधते, इनके अतिरिक्त अन्य सभी सयोगी जीव ज्ञानावरणीयकर्म बांधते हैं । इसीलिए कहा गया कि सयोगी जीव भजना से ज्ञानावरणीय कर्म बांधते हैं। अयोगी के दो भेद – अयोगी केवली और सिद्ध । ये दोनों ज्ञानावरणीय, वेदनीयादि कर्म नहीं बांधते, किन्तु सभी सयोगी जीव वेदनीयकर्म के बंधक होते हैं, क्योंकि सयोगी केवली गुणस्थान तक सातावेदनीय का बंध होता है।
(१२) उपयोगद्वार — सयोगी जीव और अयोगी जीव, इन दोनों के साकार (ज्ञान) और अनाकार (दर्शन) ये दोनों उपयोग होते हैं। इन दोनों उपयोगों में वर्तमान सयोगी जीव, ज्ञानावरणीयादि आठों कर्मप्रकृतियों को यथायोग्य बांधता है और अयोगी जीव नहीं बांधता, क्योंकि अयोगी जीव आठों कर्मप्रकृतियों का अबन्धक होता है। इसीलिए साकारोपयोगी और निराकारोपयोगी दोनों में अष्टकर्मबंध की भजना कही है।
(१३) आहारकद्वार—आहारक के दो प्रकार — वीतराग और सरागी । वीतरागी आहारक ज्ञानावरणीय कर्म नहीं बांधते, जबकि सरागी आहारक इसे बांधते हैं। इसी प्रकार अनाहारक के चार भेद होते हैं—विग्रहगति - समापन्न, समुद्घातप्राप्त केवली, अयोगीकेवली और सिद्ध । इनमें से प्रथम बांधते हैं, शेष तीनों ज्ञानावरणीयकर्म को भजना से बांधते । आहारक जीव (सयोगी केवली तक) वेदनीयकर्म को बांधते हैं, जबकि अनाहारकों में से विग्रहगतिसमापन्न और समुद्घातप्राप्त केवली ये दोनों अनाहारक वेदनीय कर्म को बांधते हैं, अयोगी केवली और सिद्ध अनाहारक इसे नहीं बांधते । इसीलिए कहा गया है कि अनाहारकजीव वेदनीयकर्म को भजना से बांधते हैं। सभी प्रकार के अनाहारक जीव आयुष्यकर्म के अबंधक हैं, जबकि आहारक जीव आयुष्यबन्धकाल में आयुष्य बांधते हैं, दूसरे समय में नहीं बांधते ।
(१४) सूक्ष्मद्वार - सूक्ष्मजीव ज्ञानावरणीय कर्म का बन्धक है। बादर जीवों के दो भेद - वीतराग और सराग। वीतराग बादरजीव ज्ञानावरणीयकर्म के अबन्धक हैं, जबकि सराग बादर जीव इसके बन्धक हैं। नोसूक्ष्म-नोबादर अर्थात्—– सिद्ध ज्ञानावरणीयादि सभी कर्मों के अबन्धक हैं। सूक्ष्म और बादर दोनों आयुष्यबन्धकाल में आयुष्यकर्म बांधते हैं, दूसरे समय में नहीं। इसीलिए इनका आयुष्य कर्मबंध भजना से कहा गया है ।
(१५) चरमद्वार — चरम का अर्थ है - जिसका अन्तिम भव है या होने वाला । यहाँ ' भव्य' को 'चरम' कहा गया है। अचरम का अर्थ है— जिसका अन्तिम भव नहीं होने वाला है अथवा जिसने भवों का अत कर दिया है । इस दृष्टि से अभव्य और सिद्ध को यहाँ ' अचरम' कहा गया है। चरम जीव यथायोग्य आठ कर्मप्रकृतियों को बांधता है और जब चरम जीव अयोगी-अवस्था में हो, तब नहीं भी बांधता । इसीलिये कहा गया है कि चरम जीव आठों कर्मप्रकृतियों को भजना से बांधता है। जिसका कभी चरमभव नहीं होगा- ऐसा अभव्य - अचरम तो आठों प्रकृतियों को बांधता है, और सिद्ध अचरम (भवों का अन्तकर्त्ता) तो किसी भी कर्मप्रकृति को नहीं बांधता । इसीलिए कहा गया कि अचरम जीव आठों प्रकृतियों को बांधता है ।
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पन्द्रह द्वारों में उक्त जीवों के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा
२९. [ १ ] एएसि णं भंते! जीवाणं इत्थिवेदगाणं पुरिसवेदगाणं नपुंसगवेदगाणं अवेदगाण य कयरे २ अप्पा वा ४ ?
१. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक २५३ से २५९ तक