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________________ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र ३४ और सिद्धकेवलदर्शनी, इन दोनों के ज्ञानावरणीय कर्मबंध का हेतु न होने से, ये दोनों इसे नहीं बांधते । चक्षुदर्शनी अचक्षुदर्शनी और अवधिदर्शन छद्मस्थ वीतरागी और सरागी वेदनीयकर्म को बांधते ही हैं। केवलदर्शनियों में जो सयोगी केवली हैं, वे वेदनीयकर्म बांधते है, किन्तु अयोगी केवली नहीं बांधते । इसीलिए कहा गया है कि केवलदर्शनी वेदनीयकर्म को भजना से बांधते हैं। (७) पर्याप्तकद्वार – जिस जीव ने उत्पन्न होने के बाद अपने योग्य आहार - शरीरादि पर्याप्तियां पूर्ण कर ली हों, वह पर्याप्तक और जिसने पूर्ण न की हों, वह अपर्याप्तक कहलाता है। अपर्याप्तक जीव ज्ञानावरणीयादि सात कर्म बांधते हैं। पर्याप्तक जीवों के दो भेद-वीतराग और सराग। इनमें से वीतरागपर्याप्तक ज्ञानावरणीयकर्म को नहीं बांधते, सरागपर्याप्तक बांधते हैं, इसीलिए कहा गया है कि पर्याप्तक भजना से ज्ञानावरणीयकर्म बांधते हैं। नोपर्याप्तक-नोअपर्याप्तक यानी सिद्ध जीव ज्ञानावरणीयादि आठों कर्मों को नहीं बांधते । पर्याप्तक और अपर्याप्तक दोनों आयुष्यबंध के काल में आयुष्य बांधते हैं, दूसरे समय में नहीं, इसीलिए कहा गया है कि ये दोनों आयुष्य-बंध भजना से करते हैं । (८) भाषकद्वार भाषालब्धि वाले भाषक और भाषालब्धि से विहीन को अभाषक कहते हैं । दो भेद - वीतरागभाषक और सरागभाषक । वीतरागभाषक ज्ञानावरणीयकर्म नहीं बांधते, सरागभाषक बांधते हैं । इसीलिए कहा गया कि भाषक जीव भजना से ज्ञानावरणीयकर्म बांधते हैं। अभाषक के चार भेद - अयोगी केवली, सिद्ध भगवान्, विग्रहगतिसमापन्न और एकेन्द्रिय पृथ्वीकायिकादि के जीव । इनमें से आदि के दो तो ज्ञानावरणीयकर्म को नहीं बांधते, जबकि पिछले दोनों वेदनीयकर्म बांधते हैं। इसलिए कहा गया है कि अभाषक जीव ज्ञानावरणीय और वेदनीयकर्म भजना से बांधते हैं। भाषक जीव (सयोगी केवली गुणस्थान के अन्तिम समय तक के भाषक भी) वेदनीयकर्म बांधते हैं । - (९) परित्तद्वार - एक शरीर में एक जीव हो उसे परित्त कहते हैं, अथवा अल्प-सीमित संसार वाले को भी परित जीव कहते हैं। परित्त के दो प्रकार — वीतरागपरित्त और सरागपरित्त । वीतरागपरित्त ज्ञानावरणीयकर्म नहीं बांधता, सरागपरित्त बांधता है। इसीलिए कहा गया है कि परित्तजीव भजना ज्ञानावरणीयकर्म को बांधता है। जो जीव अनन्त जीवों के साथ एक शरीर में रहता है, ऐसे साधारण काय वाले जीव को अपरित्त कहते हैं, अथवा अनन्त संसारी को अपरित्त कहते हैं। दोनों प्रकार के अपरित जीव ज्ञानावरणीकर्म बांधते हैं। नोपरित्त - नोअपरित्त अर्थात् सिद्ध जीव, ज्ञानावरणीयादि अष्टकर्म नहीं बांधते । परित्त और अपरित्त जीव आयुष्यबन्ध-काल में आयुष्य बांधते हैं, किन्तु दूसरे समय में नहीं, इसीलिए कहा गया है—परित्त और अपरित्त भजना से आयुष्य बांधते हैं। (१०) ज्ञानद्वार - प्रथम चारों ज्ञान वाले वीतराग- अवस्था में ज्ञानावरणीयकर्म नहीं बांधते, सराग अवस्था में बांधतें हैं । इसीलिए इन चारों के ज्ञानावरणीयकर्मबंध के विषय में भजना कही गई है। आभिनिबोधिक आदि चार ज्ञानों वाले वेदनीयकर्म को बाधते हैं, क्योंकि छद्मस्थवीतराग भी वेदनीयकर्म के बन्धक होते हैं। केवलज्ञानी वेदनीयकर्म को भजना से बांधते हैं, क्योंकि सयोगी केवली वेदनीय के बन्धक तथा अयोगी केवली और सिद्ध वेदनीय के अबन्धक होते हैं। (११) योगद्वार - मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी, ये तीनों सयोगी जब ११ वें, १२वें, १३ वें
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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