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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन विभिन्न विशिष्ट जीवों की अपेक्षा से अष्टकर्मप्रकृतियों के बन्ध-अबंध की प्ररूपणा - प्रस्तुत १७ सूत्रों (सू. १२ से २८ तक) में पांचवें द्वारा से उन्नीसवें द्वार तक के माध्यम से स्त्री, पुरुष, नपुंसक, नोस्त्री-नोपुरुष-नोनपुंसक आदि विविध विशिष्ट जीवों की अपेक्षा से अष्ट कर्मों के बन्ध-अबंध के विषय में सैद्धान्तिक निरूपण किया गया है।
अष्टविधकर्मबन्धक-विषयक प्रश्न क्रमशः पन्द्रह द्वारों में- प्रस्तुत पन्द्रह द्वारों में जिन जीवों के विषय में जिस-जिस द्वार में कर्मबन्धविषयक प्रश्न पूछा गया है, वे क्रमश: इस प्रकार हैं- (१) पंचम द्वार में-स्त्री, पुरुष, नपुंसक और नोस्त्री-नोपुरुष-नोनपुंसक जीव,(२) छठे द्वार में संयत, असंयत, संयतासंयत
और नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत जीव; (३) सप्तम द्वार में– सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव, (४) अष्टम द्वार में - संज्ञी, असंज्ञी, नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी जीव, (५) नवम द्वार में - भवसिद्धिक, अभवसिद्धिक और नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक जीव,(६) दशम द्वार में- चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी और केवलदर्शनी जीव;(७) ग्यारहवेंद्वार में पर्याप्तक, अपर्याप्तक और नोपर्याप्तक-नोअपर्याप्तक जीव; (८) बारहवें द्वार में - भाषक और अभाषक जीव, (९) तेरहवें द्वार में - परित्त, अपरित्त और नोपरित्त-नोअपरित्त जीव, (१०) चौदहवें द्वार में - आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्यायज्ञानी और केवलीज्ञानी जीव तथा मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी, विभंगज्ञानी जीव; (११) पन्द्रहवें द्वार में - मनोयोगी, वचनयोगी, काययोगी और अयोगी जीव; (१२) सोलहवें द्वार में - साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी जीव; (१३) सत्रहवें द्वार में - आहारक और अनाहारक जीव; (१४) अठारहवें द्वार में -सूक्ष्म, बादर और नोसूक्ष्म-नोबादर जीव; (१५) उन्नीसवें द्वार में- चरम और अचरम जीव।.
पन्द्रह द्वारों में प्रतिपादित जीवों के कर्म-बन्ध-अबन्धविषयक समाधान का स्पष्टीकरण - (१) स्त्रीद्वार - स्त्री, पुरुष और नपुंसक ये तीनों ज्ञानावरणीयकर्म को बांधते हैं। जिस जीव के स्त्रीत्व, पुरुषत्व और नपुंसकत्व से सम्बन्धित वेद (कामविकार) का उदय नहीं होता, किन्तु केवल स्त्री, पुरुष और नपुंसक का शरीर है, उसे अपगतवेद या नोस्त्री-नोपुरुष-नोनपुंसक जीव कहते हैं। वह अनिवृत्तिबादरसम्परायादि गुणस्थानवर्ती होता है। इनमें से अनिवृत्तिबादरसम्पराय और सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थानवी जीव ज्ञानावरणीयकर्म का बन्धक होता है, क्योंकि वह सात या छह कर्मों का बन्धक होता है। उपशान्तमोहादि गुणस्थानवर्ती (नोस्त्री-नोपुरुष-नोनपुंसक) जीव ज्ञानावरणीयकर्म के अबन्धक होते हैं, क्योंकि ये चारों (उपशान्तमोह से अयोगीकेवली) गुणस्थान वाले जीव केवल एकविध वेदनीयकर्म के बन्धक होते हैं। इसलिए कहा गया है - नोस्त्री-नोपुरुष-नोनपुंसक ज्ञानावणीयकर्म को भजना (विकल्प) से बांधता है और यह (वेदरहित) जीव आयुष्यकर्म को तो बांधता ही नहीं हैं, क्योंकि निवृत्तिबादरसम्पराय से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक में आयुष्यबंध का व्यवच्छेद हो जाता है। स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और नपुंसकवेदी जीव आयुष्यकर्म को एक भव में एक ही बार बांधता है, वह भी आयुष्य का बन्धकाल होता है, तभी आयुष्यकर्म बांधता है। जब आयुष्यबन्धकाल नहीं होता, तब आयुष्य नहीं बांधता। इसलिए कहा गया है—ये तीनों प्रकार के जीव आयुष्यकर्म को कदाचित् बांधते हैं, कदाचित् नहीं बांधते।
१. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. १, पृ. २३७ से २४२ तक