SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 627
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५९६ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र पण्णत्ता, तं जहा–नो धम्मत्थिकाये, धम्मत्थिकायस्स देसे १ धम्मत्थिकायस्स पदेसा २, एवं अधम्मत्थिकायस्स वि ३-४ एवं आगासस्थिकायस्स वि जाव आगासत्थिकायस्स पदेसा ५-६, अद्धासमये ७। [९ प्र.] भगवन् ! आग्नेयीदिशा क्या जीवरूप है, जीवदेशरूप है, अथवा जीवप्रदेशरूप है ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न। [९ उ.] गौतम! वह (आग्नेयीदिशा) जीवरूप नहीं, किन्तु जीव के देशरूप है, जीव के प्रदेशरूप भी है तथा अजीवरूप है और अजीव के प्रदेशरूप भी है। इसमें जीव के जो देश हैं वे नियमतः एकेन्द्रिय जीवों के देश हैं, अथवा एकेन्द्रियों के बहुत देश और द्वीन्द्रिय का एक देश है, १ अथवा एकेन्द्रियों के बहुत देश एवं द्वीन्द्रियों के बहुत देश हैं २, अथवा एकेन्द्रियों के बहुत देश और बहुत द्वीन्द्रियों के बहुत देश हैं ३. (ये तीन भंग हैं, इसी प्रकार) एकेन्द्रियों के बहुत देश और एक त्रीन्द्रिय का एक देश है १, इसी प्रकार से पूर्ववत् त्रीन्द्रिय के साथ तीन भंग कहने चाहिए। इसी प्रकार यावत् अनिन्द्रिय तक के भी क्रमशः तीन-तीन भंग कहने चाहिए। इसमें जीव के जो प्रदेश हैं, वे नियम से एकेन्द्रियों के प्रदेश हैं । अथवा एकेन्द्रियों के बहुत प्रदेश और एक द्वीन्द्रिय के बहुत प्रदेश हैं, अथवा एकेन्द्रियों के बहुत प्रदेश और बहुत द्वीन्द्रियों के बहुत प्रदेश हैं। इसी प्रकार सर्वत्र प्रथम भंग को छोड़कर दो-दो भंग जानने चाहिए, यावत् अनिन्द्रिय तक इसी प्रकार कहना चाहिए। अजीवों के दो भेद हैं, यथा-रूपी अजीव और अरूपी अजीव। जो रूपी अजीव हैं, वे चार प्रकार के हैं, यथा—स्कन्ध से लेकर यावत् परमाणु पुद्गल तक । अरूपी अजीव सात प्रकार के हैं, यथा—धर्मास्तिकाय नहीं, किन्तु धर्मास्तिकाय का देश, धर्मास्तिकाय के प्रदेश, अधर्मास्तिकाय. नहीं, किन्तु अधर्मास्तिकाय का देश, अधर्मास्तिकाय के प्रदेश, आकाशास्तिकाय नहीं, किन्तु आकाशास्तिकाय का देश, आकाशास्तिकाय के प्रदेश और अद्धासमय (काल)। (विदिशाओं में जीव नहीं है, इसलिए सर्वत्र देश-प्रदेश-विषयक भंग होते हैं।) ___ आग्नेयी विदिशा का स्वरूप-आग्नेयी विदिशा जीवरूप नहीं है, क्योंकि सभी विदिशाओं की चौड़ाई एक-एक प्रदेशरूप है। वे एकप्रदेशी ही निकली हैं और अन्त तक एकप्रदेशी ही रही हैं और एक प्रदेश में समग्र जीव का समावेश नहीं हो सकता, क्योंकि जीव की अवगाहना असंख्यप्रदेशात्मक है। जीवदेश सम्बन्धी भंगजाल-एकेन्द्रिय सकललोकव्यापी होने से आग्नेयी दिशा में नियमतः एकेन्द्रिय देश तो होते ही हैं। अथवा एकेन्द्रिय सकललोकव्यापी होने से और द्वीन्द्रिय अल्प होने से कहीं एक की भी संभावना है। इसलिए कहा गया-एकेन्द्रिय के बहुत देश और एक द्वीन्द्रिय का देश, इस प्रकार विकसंयोगी प्रथम भंग हुआ। यों तीन भंग होते हैं। इस प्रकार प्रत्येक इन्द्रिय के साथ तीन-तीन भंग होते हैं। १. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ४९४ २. वही, पत्र ४९४
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy