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नवम शतक : उद्देशक - ३४
पृथ्वीकायिकादि द्वारा पृथ्वीकायिकादि को श्वासोच्छ्वास करते समय क्रिया-प्ररूपणा १६. पुढविक्काइए णं भंते ! पुढविकाइयं चेव आणममाणे वा पाणममाणे वा ऊससमाणे वा नीससमाणे वा कइकिरिए ?
गोया ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए ।
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[१६ प्र.] भगवन्! पृथ्वीकायिक जीव, पृथ्वीकायिक जीव को आभ्यन्तर एवं बाह्य श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करते और छोड़ते हुए कितनी क्रिया वाले होते हैं ?
[१६ उ.] गौतम ! कदाचित् तीन क्रिया वाले, कदाचित् चार क्रिया वाले और कदाचित् पांच क्रिया वाले होते हैं। १७. पुढविक्काइए णं भंते ! आउक्काइयं आणममाणे वा० ? एवं चेव ।
[१७ प्र.] भगवन्! पृथ्वीकायिक जीव, अप्कायिक जीवों को आभ्यन्तर एवं बाह्य श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करते और छोड़ते हुए कितनी क्रिया वाले होते हैं ?
[१७ उ.] हे गौतम! पूर्वोक्त प्रकार से ही जानना चाहिए ।
१८. एवं जाव वणस्सइकाइयं ।
[१८] इसी प्राकर यावत् वनस्पतिकायिक तक कहना चाहिए।
१९. एवं आउक्काइएण वि सव्वे वि भाणियव्वा ।
[१९] इसी प्रकार अप्कायिक जीवों के साथ भी पृथ्वीकायिक आदि सभी का कथन करना चाहिए। २०. एवं तेडक्काइएण वि ।
[२०] इसी प्रकार तेजस्कायिक के साथ भी पृथ्वीकायिक आदि का कथन करना चाहिए।
२१. एवं वाउक्काइएण वि ।
[२१] इसी प्रकार वायुकायिक जीवों के साथ भी पृथ्वीकायिक आदि का कथन करना चाहिए। २२. वणस्सइकाइए णं भंते ! वणस्सइकाइयं चेव आणममाणे वा० ? पुच्छा ।
गोमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए ।
[ २२ प्र.] भगवन् ! वनस्पतिकायिक जीव, वनस्पतिकायिक जीवों को आभ्यन्तर और बाह्य श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करते और छोड़ते हुए कितनी क्रिया वाले होते हैं ?
[ २२ उ.] गौतम ! कदाचित् तीन क्रिया वाले, कदाचित् चार क्रिया वाले और कदाचित् पांच क्रिया वाले होते हैं। विवेचन — श्वासोच्छ्वास में क्रियाप्ररूपणा — पृथ्वीकायिकादि जीव पृथ्वीकायिकादि जीवों को श्वासोच्छ्वासरूप में ग्रहण करते हुए, छोड़ते हुए, जब तक उनको पीड़ा उत्पन्न नहीं करते, तब तक कायिकी आदि तीन क्रियाएँ लगती हैं, जब पीड़ा उत्पन्न करते हैं तब पारितापनिकी सहित चार क्रियाएं लगती हैं और जब उन जीवों का वध करते हैं तब प्राणातिपातिकी सहित पांचों क्रियाएं लगती हैं।
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१. (क) पांच क्रियाएं इस प्रकार है-- (१) कायिकी, (२) आधिकरणिकी, (३) प्राद्वेषिकी, (४) पारितानिकी और (५) प्राणातिपातिकी (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ४९२