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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र १११. जति णं भंते ! जमाली अणगारे अरसाहारे विरसाहारे जाव विवित्तजीवी कम्हा णं भंते! जमाली अणगारे कालमासे कालं किच्चा लंतए कप्पे तेरससागरोवमद्वितीएसु देवकिब्बिसिएसु देवेसु देवकिब्बिसियत्ताए उववन्ने ?
गोयमा ! जमाली णं अणगारे आयरियपडिणीए उवज्झायपडिणीए आयरिय-उवझायाणं अयसकारए जाव वुग्गाहेमाणे वुप्पाएमाणे बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता अद्धमासियाए संलेहणाए तीसं भत्ताई अणसणाए छेदेइ, तीसं भत्ताइं अणसणाए छेदेत्ता तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कंते कालमासे कालं किच्चा लंतए कप्पे जाव उववन्ने। __ [१११ प्र.] भगवन् ! यदि जमालि अनगार अरसाहारी, विरसाहारी यावत् विविक्तजीवी था, तो काल के समय काल करके वह लान्तककल्प में तेरह सागरोपम की स्थिति वाले किल्विषिक देवों में किल्विषिक देव के रूप में क्यों उत्पन्न हुआ?
[१११ उ.] गौतम! जमालि अनगार आचार्य का प्रत्यनीक (द्वेषी), उपाध्याय का प्रत्यनीक तथा आचार्य और उपाध्याय का अपयश करने वाला और उनका अवर्णवाद करने वाला था, यावत् वह मिथ्याभिनिवेश द्वारा अपने आपको, दूसरों को और उभय को भ्रान्ति में डालने वाला और दुर्विदग्ध (मिथ्याज्ञान के अहंकार वाला) बनाने वाला था, यावत् बहुत वर्षों तक श्रमण पर्याय का पालन कर, अर्द्धमासिक संलेखना से शरीर को कृश करके तथा तीस भक्त का अनशन द्वारा छेदन (छोड़) कर उस अकृत्यस्थान (पाप) की आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना ही, उसने काल के समय काल किया, जिससे वह लान्तक देवलोक में तेरह सागरोपम की स्थिति वाले किल्विषिक देवों में किल्विषिक देवरूप में उत्पन्न हुआ।
विवेचन–स्वादजयी अनगार किल्विषिक देव क्यों ?—प्रस्तुत दो सूत्रों (११०-१११) में श्री गौतमस्वामी द्वारा यह प्रश्न पूछे जाने पर कि जमालि जैसा स्वादजयी, प्रशान्तात्मा एवं तपस्वी अनगार लान्तककल्प में किल्विषिक देवों में क्यों उत्पन्न हुआ? भगवान् ने इस आवृत रहस्य को स्पष्टरूप से खोल कर रख दिया है कि इतना त्याग, तपस्वी होने पर भी देव-गुरु का द्वेषी, मिथ्याप्ररूपक एवं मिथ्यात्वग्रस्त होने से किल्विषिकदेव हुआ ।
कठिन शब्दों का विशेषार्थ-उवसंतजीवी—जिसके जीवन में कषाय उपाशान्त हो या अन्तर्वृत्ति से शान्त। पसंतजीवी-बहिर्वृत्ति से प्रशान्त जीवन वाला। विवित्तजीवी-पवित्र और स्त्री-पशुनपुंसकसंसर्गरहित एकान्त जीवन वाला। जमाली का भविष्य
११२. जमाली णं भंते ! देवे ताओ देवलोयाओ आउक्खएणं जाव कहिं उववजिहिति ? १. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण) भा. १, पृ. ४८१ २. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ४९०