________________
नवम शतक : उद्देशक- ३३
५७९
[१०९ उ.] गौतम! कुछ किल्विषिक देव, नैरयिक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव के चार-पांच भव करके और इतना संसार - परिभ्रमण करके तत्पश्चात् सिद्ध-बुद्ध होते हैं, यावत् सर्व दुःखों का अन्त करते हैं और कितने ही किल्विषिकदेव प्रनादि, अनन्त और दीर्घ मार्ग वाले चार गतिरूप संसार- कान्तार (संसार रूपी अटवी) में परिभ्रमण करते हैं।
विवेचन—किल्विषिक देव: प्रकार, निवास एवं उत्पत्तिकारण — प्रस्तुत ६ सूत्रों (सू. १०४१०९ तक) में किल्विषिक देवों के प्रकार, उनके निवासस्थान और उनके किल्विषिक रूप में उत्पन्न होने के कारण बताए गए हैं। अन्त में किल्विषिक देवों की अनन्तर गति का निरूपण किया गया है ।
किल्विषक देव : स्वरूप और गतिविषयक समाधान — किल्विषिक देव उन्हें कहते हैं, जो पाप के कारण देवों में चाण्डालकोटि के देव होते हैं। वे देवसभा में चाण्डाल की तरह अपमानित होते हैं । देवसभा में जब कुछ बोलने के लिए मुंह खोलते हैं तो महर्द्धिक देव उन्हें अपमानित करके बिठा देते हैं, बोलने नहीं देते। कोई देव उनका आदर-सत्कार नहीं करता ।
सू. १०९ में जो यह कहा गया है कि किल्विषिक देव, नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य एवं देव के ४-५ भव ग्रहण करके मोक्ष जाते हैं, यह सामान्य कथन है। वस्तुतः देव और नारक मर कर तुरन्त देव और नारक नहीं होते। वे वहाँ से मनुष्य या तिर्यञ्च में उत्पन्न होते हैं, इसके पश्चात् देवों या नारकों में उत्पन्न हो सकते हैं।
कठिन शब्दों का अर्थ — उप्पिं— ऊपर, हिट्ठि— नीचे | पडिणीया— प्रत्यनीक - शत्रु या विद्वेषी । अवण्णकरा — निन्दा करने वाले । अणुपरियट्टित्ता - परिभ्रमण करके । दीहमद्धं – दीर्घमार्ग रूप । चाउरंतसंसारकंतारं—चार गतियों वाले संसाररूप महारण्य को । अणवदग्गं— अनन्त । कम्मादाणेसु कर्मों के आदान कारण से । उववत्तारो—उत्पन्न होते हैं । -
किल्विषक देवों में जमालि की उत्पत्ति का कारण
११०. जमाली णं भंते ! अणगारे अरसाहारे विरसाहारे अंताहारे पंताहारे लूहाहारे तुच्छाहारे अरसजीवी विरसजीवी जाव तुच्छजीवी उवसंतजीवी पसंतजीवी विवित्तजीवी ?
हंता, गोयमा ! जमाली णं अणगारे अरसाहारे विरसाहारे जाव विवित्तजीवी ।
[११० प्र.] भगवन् ! क्या जमालि अनगार अरसाहारी, विरसाहारी, अन्ताहारी, प्रान्ताहारी, रूक्षाहारी, तुच्छाहारी, अरसजीवी, विरसजीवी यावत् तुच्छजीवी, उपशान्तजीवी, प्रशान्तजीवी और विविक्तजीवो था ? [११० उ. ] हाँ, गौतम ! जमालि अनगार अरसाहारी, विरसाहारी यावत् विविक्तजीवी था ।
१. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ - टिप्पण) भा. १, पृ. ४८०-४८१
२. भगवती (पं. घेवरचन्दजी) भा. ४, पृ. १७६५-१७६६ ३. वही, भा. ४, पृ. १७६८