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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र गोयमा! उप्पिं बंभलोगस्स कप्पस्स, हिटुिं लंतए कप्पे, एत्थ णं तेरससागरोवमट्टिईया देवकिब्बिसिया देवा परिवसंति।
[१०७ प्र.] भगवन् ! तेरह सागरोपम की स्थिति वाले किल्विषिक देव कहाँ रहते हैं ?
[१०७ उ.] गौतम! ब्रह्मलोककल्प के ऊपर तथा लान्तककल्प के नीचे तेरह सागरोपम की स्थिति वाले किल्विषिक देव रहते हैं।
१०८. देवकिब्बिसिया णं भंते ! केसु कम्मादाणेसु देवकिब्बिसियत्ताए उववत्तारो भवंति ?
गोयमा! जे इमे जीवा आयरियपडिणीया उवज्झायपडिणीया कुलपडिणीया गणपडिणीया, संघपडिणीया, आयरिय-उवज्झायाणं अयसकरा अवण्णकरा अकित्तिकरा बहू हिं असब्भावुब्भावणाहिं मिच्छत्ताभिनिवेसेहि य अप्पाणं च परं च उभयं च वुग्गाहेमाणा वुप्पाएमाणा बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणंति, पाउणित्ता तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कंता कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु देवकिब्बिसिएसु देवकिब्बिसियत्ताए उववत्तारो भवंति, तं जहातिपलिओवमट्टितीएसु वा तिसागरोवमट्टितीएसु वा तेरससागरोवमद्वितीएसु का।
_ [१०८ प्र.] भगवन् ! किन कर्मों के आदान (ग्रहण या निमित्त) से किल्विषिकदेव, किल्विषिकदेव के रूप में उत्पन्न होते हैं ?
[१०८ उ.] गौतम! जो जीव आचार्य के प्रत्यनीक (द्वेषी या विरोगी) होते हैं, उपाध्याय के प्रत्यनीक होते हैं, कुल, गण और संघ के प्रत्यनीक होते हैं तथा आचार्य और उपाध्याय का अयश (अपयश) करने वाले, अवर्णवाद बोलने वाले और अकीर्ति करने वाले हैं तथा बहुत से असत्या भावों (विचारों या पदार्थों) को प्रकट करने से, मिथ्यात्व के अभिनिवेशों (कदाग्रहों) से अपनी आत्मा को, दूसरों को और स्व-पर दोनों को भ्रान्त और दुर्बोध करने वाले बहुत वर्षों तक श्रमण-पर्याय का पालन करके उस अकार्य (पाप)-स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना काल के समय काल करके निम्नोक्त तीन में (से) किन्हीं किल्विषिकदेवों में किल्विषिकदेव रूप में उत्पन्न होते हैं। जैसे कि (१) तीन पल्योपम की स्थिति वालों में, (२) तीन सागरोपम की स्थिति वालों में, अथवा (३) तेरह सागरोपम की स्थिति वालों में।
१०९. देवकिब्बिसिया णं भंते ! ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता कहिं गच्छंति ? कहिं उववन्जंति ?
गोयमा! जाव चत्तारि पंच नेरइय-तिरिक्खजोणिय-मणुस्स-देवभवग्गहणाई संसारं अणुपरियट्टित्ता तओ पच्चा सिझंति बुझंति जाव अंतं करेंति। अत्थेगइया अणादीयं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंतसंसारकंतारं अणुपरियटति।
[१०९ प्र.] भगवन् ! किल्विषिक देव उन देवलोकों से आयु का क्षय होने पर, भवक्षय होने पर और स्थिति का क्षय होने के बाद च्यवकर कहाँ जाते हैं, कहाँ उत्पन्न होते हैं ?