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नवम शतक : उद्देशक-३३
५७५ कठिन शब्दों का भावार्थ-कलुससमावन्ने-कालुष्य से युक्त। सेलसि-शैल-पर्वत से। थूभंसि—स्तूप से।आवरिज्जइ-आवृत होता है। णिवारिज्जइ-रोका जाता है। वागरणाइं वागरेहिव्याकरणों-प्रश्नों का व्याकरण-समाधान या उत्तर दो। णो संचाएइ–समर्थ नहीं हुआ। पमोक्खं उत्तर या समाधान । एयप्पगारं—इस प्रकार की। अव्वए-अव्यय । अवट्ठिए-अवस्थित ।' मिथ्यात्वग्रस्त जमालि की विराधकता का फल
१०२. तए णं से जमालि अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स एवमाइक्खमाणस्स जाव एवं परूवेमाणस्स एयमलैंणो सद्दहइ णो पत्तियइ णोरोएइ, एयमटुं असद्दहमाणे अपत्तियमाणे अरोएमाणे दोच्चं पि समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ आयाए अवक्कमइ, दोच्चं पिआयाए अवक्कमित्ता बहूहिं असब्भावुब्भावणाहिं मिच्छत्ताभिणिवेसेहि य अप्पाणं च परं च तदुभयं च वुग्गाहेमाणे वुप्पाएमाणे बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेइ, अ० झूसेत्ता तीसं भत्ताइंअणसणाए छेदेइ, छेदेत्ता तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कंते कालमासे कालं किच्चा लंतए कप्पे तेरससागरोवमठितीएसुदेवकिब्बिसिएसुदेवेसुदेवकिब्बिसियत्ताए उववन्ने।
[१०२] श्रमण भगवान महावीर स्वामी द्वारा जमालि अनगार को इस प्रकार कहे जाने पर, यावत् प्ररूपित करने पर भी उसने (जमालि ने) इस बात पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि नहीं की और श्रमण भगवान् महावीर की इस बात पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि नहीं करता हुआ जमालि अनगार दूसरी बार भी स्वयं भगवान् के पास से चला गया।
__ इस प्रकार भगवान् से स्वयं पृथक् विचरण करके जमालि ने बहुत-से असद्भूत भावं को प्रकट करके तथा मिथ्यात्व के अभिनिवेशों (हठाग्रहों) से अपनी आत्मा को, पर को तथा उभय (दोनों) को भ्रान्त (गुमराह) करते हुए एवं मिथ्याज्ञानयुक्त करते हुए बहुत वर्षों तक श्रमण-पर्याय का पालन किया। अन्त में अर्द्धमास (१५ दिन) की संलेखना द्वारा अपने शरीर को कृश करके तथा अनशन द्वारा तीस भक्तों का छेदन (त्याग) करके, उस स्थान (पूर्वोक्त मिथ्यात्वगत पाप) की आलोचना एवं प्रतिक्रमण किये बिना ही, काल के समय काल (मृत्यु प्राप्त) करके लान्तककल्प (देवलोक) में तेरह सागरोपम की स्थिति वाले किल्विषिक देवों में किल्विषिक देवरूप में उत्पन्न हुआ।
· विवेचन—भगवद्वचनों पर अश्रद्धालु मिथ्यात्वग्रस्त जमालि की मति-गति—प्रस्तुत सू. १०२ में प्रतिपादन किया गया है कि भगवान् द्वारा सद्भावनावश समझाने एवं सत्सिद्धान्त बताने पर भी जमालि मिथ्यात्वग्रस्त होने के कारण मिथ्या प्ररूपणा करने लगा, उसने जनता को अज्ञान के अंधेरे में धकेला । फलतः अन्तिम समय में उक्त पाप का आलोचन-प्रतिक्रमण न करने से मर कर लान्तककल्प में किल्विषी देव हुआ। १. भगवतीसूत्रम् तृतीय खण्ड (पं. भगवानदास दोशी), १८१ २. वियाहपण्णत्तिसुत्तं भा. १ (मूलपाठ-टिप्पण), पृ. ४७९