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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र १०१. 'जमाली' ति समणे भगवं महावीरे जमालि अणगारं एवं वयासी–अस्थि णं जमाली! ममं बहवे अंतेवासी समणा निग्गंथा छउमत्था जे णं पभू एयं वागरणं वागरित्तए जहा णं अहं, नो चेव णं एयप्पगारं भासं भासित्तए जहा णं तुम। सासए लोए जमाली! जंणं कयावि णासि ण, कयाविण भवति ण, न कदावि ण भविस्सइ, भुविं च, भवइ य, भविस्सइ य, धुवे णितिए सासए अक्खए अव्वए अवट्ठिए णिच्चे। असासए लोए जमाली! जओ ओसप्पिणी भवित्ता उस्सप्पिणी भवइ, उस्सप्पिणी भवित्ता ओसप्पिणी भवइ।
सासए जीवे जमाली! जंणं न कयाइ णासि जाव णिच्चे।असासए जीवे जमाली! जणं नेरइए भवित्ता तिरिक्खजोणिए भवइ, तिरिक्खजोणिए भवित्ता मणुस्से भवइ, मणुस्से भवित्ता देवे भवइ।
[१०१] (तत्पश्चात्) श्रमण भगवान् महावीर ने जमालि अनगार को सम्बोधित करके यों कहाजमालि! मेरे बहुत-से श्रमण निर्ग्रन्थ अन्तेवासी (शिष्य) छद्मस्थ (असर्वज्ञ) हैं जो इन प्रश्नों का उत्तर देने में उसी प्रकार समर्थ हैं, जिस प्रकार मैं हूँ, फिर भी (जिस प्रकार तुम अपने आपको सर्वज्ञ अर्हत् जिन और केवली कहते हो,) इस प्रकार की भाषा वे नहीं बोलते। जमालि! लोक शाश्वत है, क्योंकि यह कभी नहीं था, ऐसा नहीं है, कभी नहीं है, ऐसा भी नहीं और कभी न रहेगा, ऐसा भी नहीं है, किन्तु लोक था, है और रहेगा। यह ध्रुव, नित्य, शाश्वत, अक्षय, अव्यय अवस्थित और नित्य है। (इसी प्रकार) हे जमालिं! (दूसरी अपेक्षा से) लोक अशाश्वत (भी) है, क्योंकि अवसर्पिणी काल होकर उत्सर्पिणी काल होता है, फिर उत्सर्पिणी काल (व्यतीत) होकर अवसर्पिणी काल होता है।
हे जमालि! जीव शाश्वत है, क्योंकि जीव कभी (किसी समय) नहीं था, ऐसा नहीं है, कभी नहीं है, ऐसा नहीं है और कभी नहीं रहेगा, ऐसा भी नहीं है, इत्यादि यावत् जीव नित्य है। (इसी प्रकार) हे जमालि! (किसी अपेक्षा से) जीव अशाश्वत (भी) है, क्योंकि वह नैरयिक होकर तिर्यञ्चयोनिक हो जाता है, तिर्यञ्चयोनिक होकर मनुष्य हो जाता है और (कदाचित्) मनुष्य हो कर देव हो जाता है।
विवेचन—गौतम द्वारा प्रस्तुत दो प्रश्नों का उत्तर देने में असमर्थ जमालि का भगवान् द्वारा समाधान—प्रस्तुत सूत्रों में यह प्रतिपादन किया गाय है कि जमालि अनगार के सर्वज्ञता के दावे को असत्य सिद्ध करने हेतु गौतमस्वामी केवलज्ञान का स्वरूप बताकर दो प्रश्न प्रस्तुत करते हैं, जिसका उत्तर न देकर जमालि मौन हो जाता है। फिर भ० महावीर उसे सर्वज्ञता का झूठा दावा न करने के लिए समझाकर उसे लोक और जीव की शाश्वत -अशाश्वता समझाते हैं।'
भगवान् ने लोक को कथंचित् शाश्वत और कथंचित् अशाश्वत बताया है, इसी प्रकार जीव को भी कथंचित् शाश्वत और कथंचित् अशाश्वत सिद्ध किया है।
१. वियाहपण्णत्तिसुत्तं भा. १ (मूलपाठ-टिप्पण) पृ. ४७९ २. वियाहपण्णत्तिसुत्तं भा. १ (मूलपाठ-टिप्पण) पृ. ४७९