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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
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विचित्तेहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ।
[८२] इसके पश्चात् जमालिकुमार ने स्वयमेव पंचमुष्टिक लोच किया, फिर श्रमण भगवान् महावीर की सेवा में उपस्थित हुआ और ऋषभदत्त ब्राह्मण (सू. १६ में वर्णित) की तरह भगवान् के पास प्रव्रज्या अंगीकार की । विशेषता यह है कि जमालि क्षत्रियकुमार ने ५०० पुरुषों के साथ प्रव्रज्या ग्रहण की, शेष सब वर्णन पूर्ववत् है, यावत् जमालि अनगार ने फिर सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया और बहुतसे उपवास, बेला (छट्ठ), तेला (अट्ठम), यावत् अर्द्धमास, मासखमण (मासिक) इत्यादि विचित्र तप:कर्मों से अपनी आत्मा को भावित करता हुआ विचरण करने लगा।
मालिकुमार की प्रव्रज्या, अध्ययन और तपस्या - - जमालिकुमार ने स्वयं लोच किया, भगवान् से अपनी विरक्त दशा निवेदन करके पांच सौ पुरुषों के साथ प्रव्रज्या ग्रहण की। प्रव्रज्याग्रहण के बाद जमालि अनगार ने ११ अंगशास्त्रों का अध्ययन तथा अनेक प्रकार का तपश्चरण किया, जिसका उल्लेख प्रस्तुत सूत्र में है ।
'पंचमुट्ठियं' आदि पदों का विशेषार्थ — पंचमुट्ठियं — पांचों अंगुलियों की मुट्ठी बांध कर लोच करना पंचमुष्टिक लोच कहलाता है। अप्पाणं भावेमाणे – आत्मभावों में रमण करता हुआ अथवा आत्मचिन्तन-आत्मभावना करता हुआ । तवोकम्मेहिं तपः कर्मों से - तपश्चर्याओं से ।
भगवान् की बिना आज्ञा के जमालि का पृथक् विहार
८३. तए णं से जमाली अणगारे अन्नया कयाई जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी— इच्छामि गं भंते ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे पंचहिं अणगारसएहिं सद्धिं बहिया जणवय — विहारं विहरित्तए ।
[८३] तदनन्तर एक दिन जमालि अनगार श्रमण भगवान् महावीर के पास आए और भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार बोले- भगवन् ! आपकी आज्ञा प्राप्त होने पर मैं पांच सौ अनगारों के साथ इस जनपद से बाहर ( अन्य जनपदों में) विहार करना चाहता हूँ ।
८४. तए णं से समणे भगवं महावीरे जमालिस्स अणगारस्स एयमट्ठे णो आढाइ, सिणी चिट्ठ |
, णो परिजाणाइ,
[८४] यह सुनकर श्रमण भगवान् महावीर ने जमालि अनगार की इस बात (मांग) को आदर (महत्त्व) नहीं दिया, न स्वीकार किया। वे मौन रहे ।
८५. तए णं से जमाली अणगारे समणं भगवं महावीरं दोच्चं पि तच्चं पि एवं वयासीइच्छामि णं भंते ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे पंचहिं अणगारसएहिं सद्धिं जाव विहरित्तए ।
१. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ - टिप्पण) भा. १, पृ. ४७५