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नवम शतक : उद्देशक-३३
५६५ मल्लालंकारं पडिच्छइ, पडिच्छित्ता हार-वारि जाव' विणिम्मुयमाणी विणिम्मुयमाणी जमालिं खत्तियकुमारं एवं वयासी-घडियव्वं जाया!, जइयव्वं जाया! परक्कमियव्वं जाया!, अस्सिं च णं अढे णो पमायेतव्वं ति कटु जमालिस्स खत्तियकुमारस्स अम्मा-पियरो समणं भगवं महावीर वंदंति णमंसंति, वंदित्ता णमंसित्ता, जामेव दिसं पाउब्भूया तामेव दिसं पडिगया।
[८१] तत्पश्चात् जमालि क्षत्रियकुमार की माता ने उन आभूषणों, माला एवं अलंकारों को हंस के चिह्न वाले एक पटशाटक (रेशमी वस्त्र) में ग्रहण कर लिया और फिर हार जलधारा इत्यादि के समान यावत् आंसू गिराती हुई अपने पुत्र से इस प्रकार बोली-हे पुत्र! संयम में चेष्टा करना, पुत्र! संयम में यत्न करना, हे पुत्र! संयम में पराक्रम करना। इस (संयम के) विषय में जरा भी प्रमाद न करना।
इस प्रकार कह कर क्षत्रियकुमार जमालि के माता-पिता श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार करके जिस दिशा से आए थे, उसी दिशा में वापस चले गए।
विवेचन—भगवान् द्वारा दीक्षा की स्वीकृति, माता द्वारा जमालि को संयमप्रेरणा प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. ७९ से ८१ तक) में भ. महावीर द्वारा जमालि की दीक्षा की स्वीकृति के संकेत, जमालि द्वारा आभूषणादि के उतारे जाने तथा माता द्वारा संयम में पुरुषार्थ करने की प्रेरणा का वर्णन किया गया है।
कठिन पदों के विशेषार्थ—नयणमालासहस्सेहिं पिच्छिन्जमाणे-हजारों नेत्रों द्वारा देखा जाता हुआ। संवुड्ढे-संवर्धित हुआ, बड़ा हुआ। पंकरएणं-कीचड़ के लेशमात्र से। काम-रएणं-कामरूप रज से या काम के अंशमात्र से अथवा कामानुराग से। सीसभिक्खं-शिष्यरूप भिक्षा। ओमुयइ-उतारता है। घडियव्वं—संयम पालन की चेष्टा करना । जइयव्वं संयम में यत्न करना। परक्कमियव्वं—पराक्रम करना। णो पमायेतव्—प्रमाद न करना। विणिम्मुयमाणी—विमोचन करती हुई। भोगेहि-गन्ध-रसस्पर्शों में। कामेहिं-शब्दादि रूप कामों में।
८२. तए णं से जमालि खत्तियकुमारे सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेति, करित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता एवं जहा उसभदत्तो (सु. १६) तहेव पव्वइओ, नवरं पंचहिं पुरिससएहिं सद्धिं तहेव सव्वं जाव सामाइयमाइयाइं एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जेत्ता बहूहिं चउत्थ-छट्ठ-ट्ठम जाव मासद्धमासखमणेहिं १. 'जाव' पद द्वारा सूचित पाठ-धारा-सिंदुवार-च्छिन्नमुत्तावलिपयासाइं अंसूणि। -अ. वृ. २. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मू. पा. टिप्पण) भा. १, पृ. ४७४-४७५ ३. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ४८४ । ४. 'जहा उसभदत्तो' द्वारा सूचित पाठ तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ,२ वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-आलित्तेणं भंते ! लोए इत्यादि।
-श. ९, उ. ३३, सू १६