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नवम शतक : उद्देशक-३३
५६७ [८५] तब जमालि अनगार ने श्रमण भगवान् महावीर से दूसरी बार और तीसरी बार भी इस प्रकार कहा—भंते ! आपकी आज्ञा मिल जाए तो मैं पांच सौ अनगार के साथ अन्य जनपदों में विहार करना चाहता
८६. तए णं समणे भगवं महावीरे जमालिस्स अणगारस्स दोच्चं पि तच्चं पि एयमढ् णो आढाई जाव तुसिणीए संचिट्ठइ।।
[८६] जमालि अनगार के दूसरी बार और तीसरी बार भी वही बात कहने पर श्रमण भगवान् महावीर ने इस बात का आदर नहीं किया, यावत् वे मौन रहे।
८७. तए णं से जमाली अणगारे समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ बहुसालाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता पंचहिं अणगारसएहिं सद्धिं बहिया जणवयविहारं विहरइ।।
[८७] तब (ऐसी स्थिति में) जमालि अनगार ने श्रमण भगवन् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया और फिर उनके पास से, बहुशालक उद्यान से निकला और फिर पांच सौ अनगारों के साथ बाहर के (अन्य) जनपदों में विचरण करने लगा।
विवेचन-गुरु-आज्ञा विना जमालि अनगार का विचरण- प्रस्तुत ५ सूत्रों (सू. ८३ से ८७ तक) के वर्णन के प्रतीत होता है कि जमालि अनगार द्वारा पांच सौ अनगारों को लेकर सर्वत्र विचरण की महत्त्वकांक्षा एवं सर्वज्ञ-सर्वदर्शी भगवान् द्वारा उसके स्वतंत्र विचरण के पीछे अहंकार, महत्त्वाकांक्षा एवं अधैर्य के प्रादुर्भाव होने की और भविष्य में देव-गुरु आदि के विरोधी बन जाने की संभावना देख कर स्वतंत्र विहार की अनुज्ञा नहीं दी गई। किन्तु इस बात की अवहेलना करके जमालि अनगार भगवान् महावीर से पृथक् विहार करने लगे।
विशेषार्थ-बहिया जणवयविहारं-बाहर के जनपदों में विहार । णो आढाइ-आदर (महत्त्व) नहीं किया। णो परिजाणाइ अच्छा नहीं जाना या स्वीकार नहीं किया। तुसिणीए संचिट्ठइ-मौन रहे। अंतियाओ—पास से। सद्धिं- साथ। । जमालि अनगार का श्रावस्ती में और भगवान् का चंपा में विहरण
८८. तेणं कालेणं तेणं समएणं सावत्थी नाम णयरी होत्था।वण्णओ।कोट्ठए चेइए।वण्णओ।' जाव वणसंडस्स।
[८८] उस काल उस समय में श्रावस्ती नाम की नगरी थी। उसका वर्णन (कर लेना चाहिए) वहाँ
१. 'भाविदोषत्वेनोपेक्षणीयत्त्वादस्येति।'–भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ४८६ २. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ४८६, (ख) भगवती. भा. ४ (पं. घेवरचन्दजी), पृ. १७५३ ३. देखो "उववाइअसुत्तं" में नगरी और पूर्णभद्र चैत्य का वर्णन।- उव. पत्र १-१ और ४-२