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________________ नवम शतक : उद्देशक-३३ ५४७ प्राघूर्णकभक्त— पाहुनों के लिए बनाया हुआ आहारादि। शय्यातरपिण्ड- साधुओं को मकान देने वाले के यहाँ का आहार लेना। राजपिण्ड–राजपिण्ड-राजा के लिए बने हुए आहारादि में से देना। सुहसमुथिते आदि पदों के अर्थ—सुहसमुथिते--सुख में संवर्द्धित-पला हुआ अथवा सुख के योग्य (समुचित)। वाला—व्याल (सर्प) आदि हिस्र जन्तुओं को। सेंभिय—श्लेष्म सम्बन्धी। सन्निवाइए–सन्निपातजन्य। अहियासेत्तए- सहन करने में। उदिण्णे-उदय में आने पर। ४४. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मा-पियरो एवं वयासी—तहा विणं तं अम्म! ताओ! जंणं तुब्भे ममं एवं वदह–एवं खलु जाया! निग्गंथे पावयणे अणुत्तरे केवले तं चेव जाव पव्वइहिसि। एवं खलु अम्म! ताओ! निग्गंथे पावयणे कीवाणं कायराणं कापुरिसाणं इहलोग-पडिबद्धाणं परलोगपरम्मुहाणं विसयतिसियाणं दुरणुचरे, पागयजणस्स, धीरस्स निच्छियस्स ववसियस्स नो खलु एत्थं किंचि वि दुक्करं करणयाए, तं इच्छामि णं अम्म! ताओ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव पव्वइत्तए। [४४] तब क्षत्रियकुमार जमालि ने माता-पिता को उत्तर देते हुए इस प्रकार कहा—हे माता-पिता! आप मुझे यह जो कहते हैं कि यह निर्ग्रन्थ-प्रवचन सत्य है, अनुत्तर है, अद्वितीय है, यावत् तू समर्थ नहीं है इत्यादि यावत् बाद में प्रव्रजित होना, किन्तु हे माता-पिता! यह निश्चित है कि क्लीबों (नामर्दो), कायरों, कापुरुषों तथा इस लोक में आसक्त और परलोक में पराङ्मुख एवं विषयभोगों की तृष्णा वाले पुरुषों के लिए तथा प्राकृतजन (साधारण व्यक्ति) के लिए इस निर्ग्रन्थप्रवचन (धर्म) का आचरण करना दुष्कर है, परन्तु धीर (साहसिक), कृतनिश्चय एवं उपाय में प्रवृत्त पुरुष के लिए इसका आचरण करना कुछ भी दुष्कर नहीं है। इसलिए मैं चाहता हूँ कि आप मुझे (प्रव्रज्याग्रहण की) आज्ञा दे दें तो मैं श्रमण भगवान् महावीर के पास दीक्षा ले लूं। विवेचन-जमालि के द्वारा उत्साहपूर्ण उत्तर- जमालि क्षत्रियकुमार ने माता-पिता के द्वारा निर्ग्रन्थधर्म-पालन की दुष्करता का उत्तर देते हुए कहा कि संयमपालन कायरों के लिए कठिन है, वीरों एवं दृढनिश्चय पुरुषों के लिए नहीं। अत: आप मुझे दीक्षा की आज्ञा प्रदान करें। कठिन शब्दों का भावार्थ-कीवाणं-क्लीब (मन्द संहनन वाले) लोगों के लिए। कापुरिसाणंडरपोक मनुष्यों के लिए। इहलोगपडिबद्धाणं- इस लोक में आबद्ध-आसक्त।पागयजणस्स-प्राकृतजनसाधारण मनुष्य के लिए। दुरणुचरे– आचरण करना दुष्कर है। धीरस्स-धीर-साहसिक पुरुष के लिए। निच्छियस्स- यह अवश्य करना है, इस प्रकार के दृढ़ निश्चय वाले। ववसियस्स–व्यवसित-उपाय में १. भगवती. अ. वृत्ति. पत्र ४७१ २. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मू.पा. टिप्पण), भा. १, पृ. ४६४
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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