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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
उसके लिए अकल्पनीय है । हे पुत्र! तू सुख में पला, सुख भोगने योग्य है, दुःख सहन करने योग्य नहीं है। तू (अभी तक) शीत, उष्ण, क्षुधा, पिपासा को तथा चोर, व्याल (सर्प आदि हिंस्र प्राणियों), डांस, मच्छरों के उपद्रव को एवं वात, पित्त, कफ एवं सन्निपात सम्बन्धी अनेक रोगों के आतंक को और उदय में आए हुए परीषहों एवं उपसर्गों को सहन करने में समर्थ नहीं है । हे पुत्र! हम तो क्षणभर भी तेरा वियोग सहन करना नहीं चाहते। अतः पुत्र! जब तक हम जीवित हैं, तब तक तू गृहस्थवास में रह । उसके बाद हमारे कालगत हो जाने पर, यावत् प्रव्रज्या ग्रहण कर लेना।
विवेचन-माता-पिता द्वारा निर्ग्रन्थधर्माचरण की दुष्करता का प्रतिपादन क्षत्रियकुमार जमालि को जब उसके माता-पिता विविध युक्तियों आदि द्वारा समझा नहीं सके, तब निरुपाय होकर वे निर्ग्रन्थ-प्रवचन (धर्म) की भयंकरता, दुष्करता, दुश्चरणीयता आदि का प्रलिपादन करते हैं। प्रस्तुत सूत्र में यही वर्णन है।' - कठिन शब्दों का भावार्थ—नो संचाएंति—समर्थ नहीं हुए। विसयाणुलोमाहिं—शब्दादि विषयों के अनुकूल। आघवणाहि—सामान्य उक्तियों से, पण्णवणाहि-प्रज्ञप्तियों-विशेष उक्तियों से, सन्नवणाहिसंज्ञप्तियों—विशेष रूप से समझाने-बुझाने से, विण्णवणाहि-विज्ञप्तियों से-प्रेमपूर्वक अनुरोध करने से। संजमभयुव्वेवणकरीहिं—संयम के प्रति भय और उद्वेग पैदा करने वाली। अहीव एगंतदिट्ठीए—जैसे सर्प की एक ही (आमिषग्रहण की) और दृष्टि रहती है, वैसे ही निर्ग्रन्थप्रवचन में एकमात्र चारित्रपालन के प्रति एकान्तदृष्टि होती है। तिक्खं कमियव्वं खड्गादि तीक्ष्णधारा पर चलना। गरुयं लंबेयव्वं महाशिलावत् गुरुत्तर (महाव्रत) भार उठाना। असिधारगं वतं चरियव्वं तलवार की धार पर चलने के समान व्रताचरण करना होता है।
आधाकर्मिक आदि का भावार्थ-आधाकर्मिक—किसी खास साधु के निमित्त सचित्त वस्तु को अचित्त करना या अचित्त को पकाना। औदेशिक-सामान्यतया याचकों और साधुओं के उद्देश्य से आहारादि तैयार करना। मिश्रजात-अपने और साधुओं के लिए एक साथ पकाया हुआ आहार । अध्यवपूरकसाधुओं का आगमन सुनकर अपने बनते हुए भोजन में और मिला देना। पूतिकर्म–शुद्ध आहार में आधाकर्मादि का अंश मिल जाना। क्रीत–साधु के लिए खरीदा हुआ आहार । पामित्य-साधु के लिए उधार लिया हुआ आहारादि । आछेद्य-किसी से जबरन छीनकर साधु को आहारादि देना। अनिःसृष्ट—किसी वस्तु के एक से अधिक स्वामी होने पर सबकी इच्छा के बिना देना। अभ्याहृत–साधु के सामने लाकर आहारादि देना। कान्तारभक्त- वन में रहे हुए भिखारी आदि के लिए तैयार किया हुआ आहारादि । दुर्भिक्षभक्त–दुष्काल पीड़ित लोगों को देने के लिए तैयार किया हुआ आहारादि। लानभक्त-रोगियों के लिए तैयार किया हुआ आहारादि। वार्दलिकाभक्त-दुर्दिन या वर्षा के समय भिखारिय के लिए तैयार किया हुआ आहारादि।
१. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण) भा. १, पृ. ४६३ २. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ४७१