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________________ नवम शतक : उद्देशक-३३ ऋषभदत्त ब्राह्मणधर्मानुयायी था या श्रमणधर्मानुयायी ?—इस वर्णन से ज्ञात होता है कि ऋषभदत्त पहले ब्राह्मण-संस्कृति का अनुगामी था, इसी कारण उसे चारों वेदों का ज्ञाता तथा अन्य अनेक ब्राह्मणग्रन्थों का विद्वान बताया है। किन्तु बाद में भगवान् पार्श्वनाथ के सन्तानीय मुनियों के सम्पर्क से वह श्रमणोपासक बना। श्रमणधर्म का तत्त्वज्ञ हुआ।' ' कठिन शब्दों का अर्थ–परिवसइ–निवास करता था, रहता था। वित्त-प्रसिद्ध। अपरिभूएअपरिभूत- किसी से नहीं दबने वाला, दबंग। बंभण्णएसु–ब्राह्मण-संस्कृति की नीति (धर्म) में। सुपरिणिट्ठिए—परिपक्व, मंजा हुआ।२ । भगवान् की सेवा में वन्दना-पर्युपासनादि के लिए जाने का निश्चय ४. तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे। परिसा जाव पज्जुवासइ। [४] उस काल और उस समय में (श्रमण भगवान् महावीर) स्वामी वहाँ पथारे । समवसरण लगा। परिषद् यावत् पर्युपासना करने लगी। ५. तए णं से उसभदत्ते माहणे इमीसे कहाए लद्धढे समाणे हट्ट जाव हियए जेणेव देवाणंदा माहणी तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता देवाणंदं माहणिं एवं वयासी–एवं खलु देवाणुप्पिए ! समणे भगवं महावीरे आदिगरे जाव सव्वण्णू सव्वदरिसी आगासगएणं चक्केणं जाव सुहंसुहेणं विहरमाणे जाव बहुसालए चेइए अहापडिरूवंजाव विहरइ।तं महाफलं खलु देवाणुप्पिए ! तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं नाम-गोयस्स वि सवणयाए किमंग पुण अभिगमण-वंदण-नमंसण-पडिपुच्छणपज्जुवासणयाए। एगस्स वि आरियस्स धम्मियस्स सुवयणस्स सवणयाए किमंग पुण विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए ? तं गच्छामो णं देवाणुप्पिए ! समणं भगवं महावीरं वंदामो नमंसामो जाव पज्जुवासामो। एयं णं इहभवे य परभवे य हियाए सुहाए खमाए निस्सेसाए आणुगामियत्ताए भविस्सइ। [५] तदनन्तर इस (श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पदार्पण की) बात को सुनकर वह ऋषभदत्त ब्राह्मण अत्यन्त हर्षित और सन्तुष्ट हुआ, यावत् हृदय में उल्लसित हुआ और जहाँ देवानन्दा ब्राह्मणी थी, वहाँ आया और उसके पास आकर इस प्रकार बोला—हे देवानुप्रिये! धर्म की आदि करने वाले यावत् सर्वज्ञ सर्वदर्शी श्रमण भगवान् महावीर आकाश में रहे हुए चक्र से युक्तं यावत् सुखपूर्वक विहार करते हुए यहाँ पधारे हैं, यावत् बहुशालक नामक चैत्य (उद्यान) में योग्य अवग्रह ग्रहण करके यावत् विचरण करते हैं। हे देवानुप्रिये ! उन तथारूप अरिहन्त भगवान् के नाम-गोत्र के श्रवण से भी महाफल प्राप्त होता है, तो उनके सम्मुख जाने, वन्दन-नमस्कार करने, प्रश्न पूछने और पर्युपासना करने आदि से होने वाले फल के विषय में तो कहना ही क्या ! एक भी आर्य और धार्मिक सुवचन के श्रवण से महान् फल होता है, तो फिर विपुल अर्थ को १. भगवतीसूत्र : अर्थागम (हिन्दी) द्वितीय खण्ड, पृ. ८३७ २. भगवती. भाग ४ (पं. घेवरचन्दजी), पृ. १६९०
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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