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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र ग्रहण करने से महाफल हो, इसमें तो कहना ही क्या ! इसलिए हे देवानुप्रिये ! हम चलें और श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमन करें यावत् उनकी पर्युपासना करें। यह कार्य हमारे लिए इस भव में तथा परभव में हित के लिए, सुख के लिए, क्षमता (-संगतता) के लिए, निःश्रेयस् के लिए और आनुगामिकता (-शुभ अनुबन्ध) के लिए होगा।
६. तए णं देवाणंदा माहणी उसभदत्तेणं माहणेणं एवं वुत्ता समाणी हट्ठ जाव हियया करयल जाव कटु उसभदत्तस्स माहणस्स एवमटुं विणएणं पडिसुणेइ।
[६] तत्पश्चात् ऋषभदत्त ब्राह्मण से इस प्रकार का कथन सुनकर देवानन्दा ब्राह्मणी हृदय में अत्यन्त हर्षित यावत् उल्लसित हुई और उसने दोनों हाथ जोड़ कर मस्तक पर अंजलि करके ऋषभदत्त ब्राह्मण के कथन को विनयपूर्वक स्वीकार किया।
विवेचन–भगवान् महावीर की सेवा में दर्शन-वन्दनादि के लिए जाने का निश्चय–प्रस्तुत सू. ४ से ६ तक में भगवान् महावीर का ब्राह्मणकुण्ड में पदार्पण, ऋषभदत्त द्वारा हर्षित होकर देवानन्दा को शुभ समाचार सुनाया जाना तथा भगवान् के नाम-गोत्र श्रवण, अभिगमन, वन्दन-नमन, पृच्छा, पर्युपासना, वचनश्रवण, ग्रहण आदि का माहात्म्य एवं फल बताकर दर्शन-वन्दनादि के लिए जाने का विचार प्रस्तुत करना तथा इस कार्य को हितकर, सुखकर, श्रेयस्कर एवं परम्परानुगामी बताना, यह सब सुनकर देवानन्दा द्वारा हर्षित होकर सविनय समर्थन एवं दर्शन-वन्दनादि के लिए जाने का दोनों का निश्चय क्रमशः प्रतिपादित किया गया है।'
__ कठिन शब्दों के अर्थ—इमीसे कहाए लद्धढे समाणे—यह (-श्रमण भगवान् महावीर के कुण्डग्राम में पदार्पण की) बात जान कर । हट्टतुट्टचित्तमाणंदिया-अत्यन्त हृष्ट-प्रसन्न, सन्तुष्ट-चित्त एवं आनन्दित । आगासगएणं चक्केणं-आकाशगत चक्र (धर्मचक्र) से युक्त। अहापडिरूवं-अपने कल्प के अनुरूप । खमाए–क्षमता-संगतता के लिए। आणुगामियत्ताए—आनुगामिकता अर्थात्-परम्परा से चलने वाले शुभ अनुबन्ध के लिए। ब्राह्मणदम्पती की दर्शनवन्दनार्थ जाने की तैयारी
७. तए णं से उसभदत्ते माहणे कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, कोडुंबियपुरिसे सद्दावेत्ता एवं वयासीखिप्पामेव भो ! देवाणुप्पिया ! लहुकरणजुत्त-जोइय-समखुर-वालिधाण-समलिहियसिंगएहिं जंबूणयामयकलावजुत्तपइविसिट्ठएहिं रययामयघंटसुत्तरज्जुयवरकंचणनत्थपग्गहोग्गहियएहिं नीलुप्पलकयामेलएहिं पवरगोणजुवाणएहिं नाणमणिरयणघंटियाजालपरिगयं सुजायजुगजोत्तरज्जुयजुगपसत्थ सुविरचितनिम्मियं पवरलक्खणोववेयं धम्मियं जाणप्पवरं जुत्तामेव उवट्ठवेह, उवट्ठवित्ता मम एयमाणत्तियं पच्चपिणह। १. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण) भा. १, पृ. ४५० २. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ४५१ (ख) भगवती खण्ड ३ (गु. विद्यापीठ), पृ. १६२