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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
जानता हूँ, क्योंकि केवलज्ञानी का स्वभाव पारमार्थिक प्रत्यक्ष रूप केवलज्ञान द्वारा समस्त वस्तुसमूह को प्रत्यक्ष (साक्षात्) करने का होता है । अतः भगवान् द्वारा केवलज्ञान के स्वरूप और सिद्धान्त का स्पष्टीकरण किया गया है ।
कठिन शब्दों का भावार्थ सयं— स्वतः प्रत्यक्षज्ञान । असयं अस्वयं, परतः ज्ञान । अमियं
अपरिमित ।
नैरयिक आदि की स्वयं उत्पत्ति
५३.[ १ ] सयं भंते ! नेरइया नेरइएस उववज्जंति ? असयं नेरइया नेरइएसु उववज्जंति ? गंगेया ! सयं रइया नेरइएस उववज्जंति, नो असयं नेरइया नेरइएस उववज्र्ज्जति ।
[५३-१ प्र.] हे भगवन्! क्या नैरयिक, नैरयिकों में स्वयं उत्पन्न होते हैं या अस्वयं उत्पन्न होते हैं ? [५३ - १ उ.] गांगेय ! नैरयिक, नैरयिकों में स्वयं उत्पन्न होते हैं, अस्वयं उत्पन्न नहीं होते । [ २ ] से केणट्ठेणं भंते ! एवं वुच्चइ जाव उववज्जंति ?
गंगे ! कम्मोदकम्मगुरुयत्ताए कम्मभारियत्ताए कम्मगुरुसंभारियत्ताए, असुभाणं कम्माणं उदएणं, असुभाणं कम्माणं विवागेणं, असुभाणं कम्माणं फलविवागेणं सयं नेरइया नेरइएसु उववज्जंति, नो असयं नेरइया नेरइएस उववज्जंति, से तेणट्ठेणं गंगेया ! जाव उववज्र्ज्जति ।
[५३-२ प्र.] भगवन्! ऐसा क्यों कहते हैं कि यावत् अस्वयं उत्पन्न नहीं होते ?
[५३-२ उ.] गांगेय! कर्म के उदय से कर्मों की गुरुता के कारण कर्मों के भारीपन से कर्मों के अत्यन्त गुरुत्व और भारीपन से, अशुभ कर्मों के उदय से, अशुभ कर्मों के विपाक से तथा अशुभ कर्मों के फलपरिपाक से नैरयिक, नैरयिकों में स्वयं उत्पन्न होते हैं, अस्वयं (परप्रेरित) उत्पन्न नहीं होते। इसी कारण से हे गांगेय ! यह कहा गया है कि नैरयिक नैरयिकों में स्वयं उत्पन्न होते हैं, अस्वयं उत्पन्न नहीं होते ।
विवेचन— नैरयिकों आदि की स्वयं उत्पत्ति - रहस्य और कारण - प्रस्तुत पांच सूत्रों (५३ से ५७ तक) में नैरयिक से लेकर वैमानिक तक २४ दण्डकों के जीवों की स्वयं उत्पत्ति बताई गई है, अस्वयं यानी पर - प्रेरित नहीं । इस सिद्धान्त कथन का रहस्य यह है, कतिपय मतावलम्बी मानते हैं कि 'यह जीव अज्ञ है, अपने लिए सुख-दुःख उत्पन्न करने में असमर्थ है। ईश्वर की प्रेरणा से यह स्वर्ग अथवा नरक में जाता है ।' जैन सिद्धान्त से विपरीत इस मत का यहाँ खण्डन हो जाता है क्योंकि जीव कर्म करने में जैसे स्वतंत्र है, उसी प्रकार कर्मों का फल भोगने के लिए वह स्वयं स्वर्ग या नरक में जाता है, किन्तु ईश्वर के भेजने से नहीं
जाता।
१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ४५५
२. अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुख-दुःखयोः ।
ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा ॥
- भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ४५५