SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 546
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५१५ नवम शतक : उद्देशक-३२ ५४. [१] सयं भंते ! असुरकुमारा० पुच्छा। गंगेया ! सयं असुरकुमारा जाव उववजंति, तो असयं असुरकुमारा जाव उववज्जति। [५४-१ प्र.] भंते! असुरकुमार, असुरकुमारों में स्वयं उत्पन्न होते हैं या अस्वयं ? इत्यादि पृच्छा। [५४-१ उ.] गांगेय! असुरकुमार असुरकुमारों में स्वयं उत्पन्न होते हैं, अस्वयं उत्पन्न नहीं होते। [२] से केणढेणं तं चेव जाव उववजंति ? गंगेया ! कम्मोदएणं कम्मविगतीए कम्मविसोहीए कम्मविसुद्धीए, सुभाणं कम्माणं उदएणं, सुभाणं कम्माणं विवागणं, सुभाणं कम्माणं फलविवागणं सयं असुरकुमारा असुरकुमारत्ताए उववजंति, नो असयं असुरकुमारा असुरकुमारत्ताए उववति। से तेणठेणं जाव उववज्जति। एवं जाव थणियकुमारा। [५४-२ प्र.] भगवन् ! ऐसा कहने का क्या कारण है कि यावत् अस्वयं उत्पन्न नहीं होते ? [५४-२ उ.] हे गांगेय! कर्म के उदय से, (अशुभ) कर्म के अभाव से, कर्म की विशोधि से, कर्मों की विशुद्धि से, शुभ कर्मों के उदय से, शुभ कर्मों के विपाक से, शुभ कर्मों के फलविषाक से असुरकुमार, असुरकुमारों में स्वयं उत्पन्न होते हैं, अस्वयं उत्पन्न नहीं होते। इसलिए हे गांगेय ! पूर्वोक्त रूप से कहा गया है। इसी प्रकार स्तनितकुमारों तक जानना चाहिए। ५५.[१] सयं भंते ! पुढविक्काइया० पुच्छा। गंगेया ! सयं पुढविकाइया जाव उववजंति, नो असयं पुढविक्काइया जाव उववजंति। [५५-१ प्र.] भगवन् ! क्या पृथ्वीकायिक, पृथ्वीकायिकों में स्वयं उत्पन्न होते हैं, या अस्वयं उत्पन्न होते [५५:१ उ.] गांगेय! पृथ्वीकायिक, पृथ्वीकायिक में स्वयं यावत् उत्पन्न होते हैं, अस्वयं उत्पन्न नहीं होते हैं। [२] से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ जाव उववजंति ? गंगेया ! कम्मोदएणं कम्मगुरुयत्ताए कम्मभारियत्ताए कम्मगुरुसंभारियत्ताए, सुभासुभाणं कम्माणं उदएणं, सुभासुभाणं कम्माणं विवागणं, सुभासुभाणं कम्माणं फलविवागणं सयं पुढविकाइया जाव उववजंति, नो असयं पुढविकाइया जाव उववज्जति।से तेणठेणंजाव उववजंति। [५५-२ प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं कि पृथ्वीकायिक स्वयं उत्पन्न होते हैं, इत्यादि ? [५५-२ उ.] गांगेय! कर्म के उदय से, कर्मों की गुरुत्ता से, कर्म के भारीपन से, कर्म के अत्यन्त गुरुत्व और भारीपन से, शुभाशुभ कर्मों के उदय से, शुभाशुभ कर्मों के विपाक से, शुभाशुभ कर्मों के फल-विपाक से
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy