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________________ नवम शतक : उद्देशक-३२ ५१३ केवलज्ञानी आत्मप्रत्यक्ष से सब जानते हैं ५२.[१] सयं भंते! एतेवं जाणह उदाहु असयं ? असोच्चा एतेवं जाणह उदाहु सोच्चा 'सओ नेरइया उववन्जंति, नो असओ नेरइया उववजंति जाव सओ वेमाणिया चयंति, नो असओ वेमाणिया चयंति?' गंगेया ! सयं एतेवं जाणामि, नो असयं, असोच्चा एतेवं जाणामि, नो सोच्चा, 'सओ नेरइया उववजंति, नो असओ नेरइया उववजंति, जाव सओ वेमाणिया चयंति, नो असओ वेमाणिया चयंति।' [५२-१ प्र.] भगवन्! आप स्वयं इसे इस प्रकार जानते हैं, अथवा अस्वयं जानते हैं ? तथा बिना सुने ही इसे इस प्रकार जानते हैं, अथवा सुनकर जानते हैं कि सत् नैरयिक उत्पन्न होने हैं, असत् नैरयिक नहीं। यावत् सत् वैमानिक में से च्यवन होता है, असत् वैमानिकों में से नहीं ? [५२-२ उ.] गांगेय! यह सब इस रूप में मैं स्वयं जानता हूँ, अस्वयं नहीं तथा बिना सुने ही मैं इस प्रकार जानता हूँ, सुनकर ऐसा नहीं जानता कि सत् नैरयिक उत्पन्न होते हैं, असत् नैरयिक नहीं, यावत् सत् वैमानिकों में से च्यवते हैं, असत् वैमानिकों में से नहीं। [२] से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ तं चेव जाव नो असओ वेमाणिया चयंति ? गंगेया ! केवली णं पुरित्थमेणं मियं पि जाणइ, अमियं पि जाणइ, दाहिणेणं एवं जहा सदुद्देसए (स. ५ उ. ४ सु. ४ [२]).जाव निव्वुडे नाणे केवलिस्स, से तेणढेणं गंगेया ! एवं वुच्चइ तं चेव जाव नो असओ वेमाणिया चयंति। [५२-२ प्र.] भगवन्! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि मैं स्वयं जानता हूँ, इत्यादि (पूर्वोक्तवत्) यावत् सत् वैमानिकों में से च्यवते हैं, असत् वैमानिकों में से नहीं? [५२-२ उ.] गांगेय! केवलज्ञानी पूर्व (दिशा) में मित (मर्यादित) भी जानते हैं अमित (अमर्यादित) भी जानते हैं। इसी प्रकार दक्षिण दिशा में भी जानते हैं। इस प्रकार शब्द-उद्देशक (भगवती.श.५, उ.४, सू. ४-२) में कहे अनुसार कहना चाहिए। यावत् केवली का ज्ञान निरावरण होता है, इसलिए हे गांगेय ! इस कारण ऐसा कहा जाता है कि मैं स्वयं जानता हूँ, इत्यादि यावत् असत् वैमानिकों में से नहीं च्यवते। विवेचन केवलज्ञानी द्वारा समस्त स्व-प्रत्यक्ष प्रस्तुत सूत्र ५२ में बताया गया है कि भगवान् की अतिशय ज्ञानसम्पदा की सम्भावना करते हुए गांगेय ने जो प्रश्न किया है, उसके उत्तर में भगवान् ने कहा—'मैं अनुमान आदि के द्वारा नहीं, किन्तु स्वयं-आत्मा द्वारा जानता हूँ तथा दूसरे पुरुषों के वचनों को सुनकर अथवा आगमतः सुनकर नहीं जानता, अपितु बिना सुने ही-आगमनिरपेक्ष होकर स्वयं, यह ऐसा है इस प्रकार १. देखिये-भगवती सूत्र श. ५, उ. ४, सू. ४-२ में
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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