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छठा शतक : उद्देशक-३ चतुर्थद्वार—अष्ट कर्मों की बन्धस्थिति आदि का निरूपण
१०. कति णं भंते ! कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ।
गोयमा ! अट्ठ कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओ, तं जहा—णाणावरणिजं सणावरणिजं जाव' अंतराइयं।
[१० प्र.] भगवन् ! कर्मप्रकृतियाँ कितनी कही गई हैं ?
[१० उ.] गौतम ! कर्मप्रकृतियाँ आठ कही गई हैं, वे इस प्रकार हैं – ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय यावत् अन्तराय।
११.[१] नाणावरणिजस्स णं भंते ! कम्मस्स केवतियं कालं बंधठिती पण्णत्ता?
गोयमा !जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ, तिणि यवाससहस्साई अबाहा, अबाहूणिया कम्मठिती कम्मनिसेओ।
[११-१ प्र.] भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म की बन्धस्थिति कितने काल की कही गई है ?
[११-१ उ.] गौतम ! ज्ञानावरणीय कर्म की बन्धस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम की है। उसका अबाधाकाल तीन हजार वर्ष का है। अबाधकाल जितनी स्थिति को कम करने से शेष कर्मस्थिति कर्मनिषेककाल जानना चाहिए।
[२] एवं दरिसणावरणिजं पि। [११-२] इसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्म के विषय में भी जानना चाहिए। [३] वेदणिजं जह० दो समया, उक्को० जहा नाणावरणिजं।
[११-३] वेदनीय कर्म की जघन्य (बन्ध-) स्थिति दो समय की है, उत्कृष्ट स्थिति ज्ञानावरणीय कर्म के समान तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम की जाननी चाहिए।
[४] मोहणिजं जह० अंतोमुहुत्तं, उक्को० सत्तरि सागरोवमकोडाकोडीओ, सत्त य वाससहस्साणि अबाधा, अबाहूणिया कम्मठिई कम्मनिसेगो।
[११-४] मोहनीय कर्म की बन्धस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट ७० कोड़ाकोड़ी सागरोपम की है। सात हजार वर्ष का अबाधाकाल है। अबाधाकाल की स्थिति को कम करने से शेष कर्मस्थिति कर्मनिषेककाल जानना चाहिए।
[५]आउगंजहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्को० तेत्तीसं सागरोवमाणि पुव्वकोडितिभागमब्भहियाणि, कम्मट्टिती कम्मनिसेओ।
१. 'जाव' शब्द वेदनीय से गोत्र कर्मों तक का सूचक है।