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________________ २२ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र जीव सादि-सान्त हैं, सादि अनन्त हैं, अनादि-सान्त हैं अथवा अनादि-अनन्त हैं ?) [९-१ उ.] गौतम ! कितने ही जीव सादि-सान्त हैं, कितने ही जीव सादि-अनन्त हैं, कई जीव अनादि-सान्त हैं और कितनेक अनादि-अनन्त हैं। (इस प्रकार जीव में चारों ही भंग कहने चाहिए।) [२] से केणठेणं०? गोयमा ! नेरतिया तिरिक्खजोणिया मणुस्सा देवा गतिरागतिं पडुच्च सादीया सपज्जवसिया। सिद्धा गतिं पडुच्च सादीया अपजवसिया। भवसिद्धिया लद्धिं पडुच्च अणादीया सपज्जवसिया। अभवसिद्धिया संसारं पडुच्च अणादीया अपजवसिया भवंति। से तेणढेणं०। [९-२ प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? [९-२ उ.] गौतम ! नैरयिक, तिर्यञ्चयोनिक, मनुष्य तथा देव गति और आगति की अपेक्षा से सादिसान्त हैं; सिद्धगति की अपेक्षा से सिद्ध जीव सादि-अनन्त हैं; लब्धि की अपेक्षा भवसिद्धिक जीव अनादिसान्त हैं और संसार की अपेक्षा अभवसिद्धिक जीव अनादि-अनन्त हैं। विवेचन–वस्त्र एवं जीवों की सादि-सान्तता आदि की प्ररूपणा - प्रस्तुत सूत्रद्वय में वस्त्र की सादि-सान्तता बता कर जीवों की सादि-सान्तता आदि चतुर्भंगी का प्ररूपण किया गया है। नरकादि गति की सादि-सान्तता – नरकादि गति में गमन की अपेक्षा उसकी सादिता है और वहाँ से निकलने रूप आगमन की अपेक्षा उसकी सान्ताता है। सिद्धजीवों की सादि-अन्तता– यों तो सिद्धों का सद्भाव सदा से है। कोई भी काल या समय ऐसा नहीं था और न है तथा न रहेगा कि जिस समय एक भी सिद्ध न हो, सिद्ध-स्थान सिद्धों से सर्वथा शून्य रहा हो। अतएव सामूहिक रूप से तो सिद्ध अनादि हैं, रोह अनगार के प्रश्न के उत्तर में यही बात बताई गई है। किन्तु एक सिद्ध जीव की अपेक्षा से सिद्धगति में प्रथम प्रवेश के कारण सभी सिद्ध सादि हैं। प्रत्येक सिद्ध ने किसी नियत समय में भवभ्रमण का अन्त करके सिद्धत्व प्राप्त किया है। इस दृष्टि से सिद्धों का सादिपन सिद्ध होता है। इसी तरह प्रत्येक जीव पहले संसारी था, भव का अन्त करने के पश्चात् वह सिद्ध हुआ है, किन्तु सिद्धपर्याय का कभी अन्त न होने के कारण सिद्धों को अनन्त भी कहा जा सकता है। यों सिद्धों की अनन्तता सिद्ध होती भवसिद्धिक जीवों की अनादिसान्तता - भवसिद्धिक जीवों के भव्यत्वलब्धि होती है, जो सिद्धत्व प्राप्ति तक रहती है। इसके बाद हट जाती है। इस दृष्टि से भवसिद्धिकों को अनादि-सान्त कहा है। १. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति (ख) भगवती. (टीकानुवाद-टिप्पणयुक्त), खण्ड २, पृ. २७५ (ग) देखो, भगवती टीकानुवाद प्रथमखण्ड, शतक १ उ. ६ में रोह अनगार के प्रश्न
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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