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________________ २४ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र _ [११-५] आयुष्यकर्म की बन्धस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट पूर्वकोटि के त्रिभाग से अधिक तेतीस सागरोपम की है। इसका कर्मनिषेक काल (तेतीस सागरोपम का तथा शेष) अबाधाकाल जानना चाहिए। [६] नाम-गोयाणं जह० अट्ठ मुहुत्ता, उक्को० वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ, दोण्णि य वाससहस्साणि अबाहा, अबाहूणिया कम्महिती कम्मनिसेओ। [११-६] नामकर्म और गोत्र कर्म की बन्धस्थिति जघन्य आठ मुहूर्त की और उत्कृष्ट २० कोड़ाकोड़ी सागरोपम की है। इसका दो हजार वर्ष का अबाधाकाल है। उस अबाधाकाल की स्थिति को कम करने से शेष कर्मस्थिति कर्मनिषेककाल होता है। [७] अंतरायं जहा नाणावरणिजं। [११-७] अन्तरायकर्म के विषय में ज्ञानावरणीय कर्म की तरह (बन्धस्थिति आदि) समझ लेना चाहिए। विवेचन—आठ कर्मों की बन्धस्थिति आदि का निरूपण—प्रस्तुत सूत्रद्वय में आठ कर्मों की जघन्य-उत्कृष्ट बन्धस्थिति, अबाधाकाल एवं कर्मनिषेककाल का निरूपण किया गया है। बन्धस्थिति - कर्मबंध होने के बाद वह जितने काल तक रहता है, उसे बन्धस्थिति कहते हैं। अबाधाकाल-बाधा का अर्थ है—कर्म का उदय। कर्म का उदय न होना, अबाधा' कहलाता है। कर्म-बंध स लेकर जब तक उस कर्म का उदय नहीं होता, तब तक के काल को अबाधाकाल कहते हैं । अर्थात् कर्म का बंध और कर्म का उदय इन दोनों के बीच के काल को अबाधाकाल कहते हैं। कर्मस्थिति कर्मनिषेककाल—प्रत्येक कर्म बन्धने के पश्चात् उस कर्म के उदय में आने पर अर्थात् उस कर्म का अबाधा काल पूरा होने पर कर्म को वेदन (अनुभव) करने के प्रथम समय से लेकर बंधे हुए कर्म-दलिकों में से वेदनयोग्यभोगनेयोग्य कर्मदलिकों की एक प्रकार की रचना होती है उसे कर्म-निषेक कहते हैं। प्रथम समय में बहुत अधिक कर्मनिषेक होता है, द्वितीय, तृतीय आदि समय में उत्तरोत्तर क्रमशः विशेष हीन विशेष हीन होता जाता है। निषेक तब तक होता रहता है, जब तक वह बंधा हुआ कर्म आत्मा के साथ (कर्मबंधस्थिति तक) टिकता __ कर्म की स्थिति : दो प्रकार की- एक कर्म के रूप में रहना, और दूसरी अनुभव (वेदन) योग्य कर्मरूप में रहना। कर्म जब से अनुभव (वेदन) में आता है, उस समय की स्थिति को अनुभव योग्य कर्मस्थिति जानना। अर्थात् कर्म की कुल स्थिति में अनुदय का काल (अबाधाकाल) बाद करने पर जो स्थिति शेष रहती है। उसे अनुभवयोग्य कर्मस्थिति समझना। कर्म की स्थिति जितने कोड़ाकोड़ी सागरोपम की होती है, उतने सौ १. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति (टीकानुवाद-टिप्पणयुक्त), खण्ड २, पृ. २७६-२७७ (ख) शिवशर्म आचार्य कृत कर्मप्रकृति (उपा, यशोविजयकृत टीका) निषेकप्ररूपणा पृ.८०
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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