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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
[३२ प्र.] भगवन्! केवली यावत् केवलि-पाक्षिक की उपासिका से (धर्मप्रतिपादक वचन) श्रवण कर क्या कोई जीव केवलिप्ररूपित धर्म-बोध (श्रवण) प्राप्त करता है ?
__[३२ उ.] गौतम! केवलि यावत् केवलि-पाक्षिक की उपासिका से धर्म-वचन सुनकर कोई जीव केवलिप्ररूपित धर्म का बोध प्राप्त करता है और कोई जीव प्राप्त नहीं करता। इस विषय में जिस प्रकार असोच्चा की वक्तव्यता कही, उसी प्रकार 'सोच्चा' की वक्तव्यता कहनी चाहिए। विशेष यह है कि यहाँ सर्वत्र 'सोच्चा' ऐसा पाठ कहना चाहिए। शेष सभी पूर्वोक्त वक्तव्यता कहनी चाहिए, यावत् जिसने मनः पर्यवज्ञानावरणीय कर्मों का क्षयोपशम किया है तथा जिसने केवलज्ञानावरणीय कर्मों का क्षय किया है, वह केवली यावत् केवलि-पाक्षिक की उपासिका से धर्मवचन सुनकर केवलि-प्ररूपित धर्म-बोध (श्रवण) प्राप्त करता है, शुद्ध बोधि (सम्यग्दर्शन) का अनुभव करता है, यावत् केवलज्ञान प्राप्त करता है।
विवेचन'असोच्चा' का अतिदेश—जैसे केवली आदि के वचन बिना सुने ही जिन्हें सम्यग्बोध से लेकर यावत् केवलज्ञान तक प्राप्त होता है, यह कहा गया है, उसी प्रकार केवली आदि से धर्मश्रवण करने वाले जीव को भी सम्यग्बोध से लेकर यावत् केवलज्ञान (तक) उत्पन्न होता है। असोच्चा' को लेकर जो पाठ था उसी पाठ का 'सोच्चा' के सभी प्रकरण में अतिदेश किया गया है। केवली आदि से सुन कर अवधिज्ञान की उपलब्धि
३३. तस्स णं अट्ठमंअट्ठमेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावमाणस्स पगइभद्दयाए तहेव जाव गवेसणं करेमाणस्स ओहिणाणे समुप्पज्जइ। से णं तेणं ओहिनाणेणं समुप्पन्नेणं जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं असंखेन्जाइं अलोए लोयप्पमाणमेत्ताइं खंडाइं जाणइ पासइ।
। [३३] (केवली आदि से धर्म-वचन सुनकर सम्यग्दर्शनादि प्राप्त जीव को) निरन्तर तेले-तेले (अट्ठमअट्ठम) तप:कर्म से अपनी आत्मा को भावित करते हुए प्रकृतिभद्रता आदि (पूर्वोक्त) गुणों से यावत् ईहा, अपोह, मार्गण एवं गवेषण करते हुए अवधिज्ञान समुत्पन्न होता है। वह उस उत्पन्न अवधिज्ञान के प्रभाव से जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्टं अलोक में भी लोकप्रमाण असंख्य खण्डों को जानता और देखता है।
विवचेन-केवली आदि से सुनकर सम्यग्दर्शनादिप्राप्त जीव को अवधिज्ञान-प्राप्ति की प्रक्रिया-बिना सुने अवधिज्ञान प्राप्त करने वाले जीव को पहले विभंगज्ञान प्राप्त होता है, फिर सम्यक्त्वादि प्राप्त होने पर वही विभंगज्ञान अवधिज्ञान में परिणत हो जाता है, जबकि सुन कर अवधिज्ञान प्राप्त करने वाला जीव बेले के बदले निरन्तर तेले की तपस्या करता है। प्रकृतिभद्रता आदि गुण तथा उससे ईहादि के कारण अवधिज्ञान प्राप्त हो जाता है। जिसके प्रभाव से उत्कृष्टतः अलोक में भी लोकप्रमाण असंख्य खण्डों को
१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ४३८