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नवम शतक : उद्देशक- ३१
(५) वे एक समय में कितने होते हैं ?
आघवेज्ज— शिष्यों को शास्त्र का अर्थ ग्रहण कराते हैं, अथवा अर्थ-प्रतिपादन करके सत्कार प्राप्त
कराते हैं।
पन्नवेज्ज— भेद बताकर या भिन्न-भिन्न करके समझाते हैं।
परूवेज्ज——–उपपत्तिकथनपूर्वक प्ररूपण करते हैं ।
पव्वावेज्ज मुंडावेज्ज—रजोहरण आदि द्रव्यवेष देकर प्रव्रजित (दीक्षित) करते हैं, मस्तक का लोच कर मुण्डित करते हैं।
उवएसं पुण करेज्ज— किसी दीक्षार्थी के उपस्थित होने पर 'अमुक के पास दीक्षा लो' केवल इतना सा उपदेश करते हैं ।
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सद्दावइ इत्यादि पदों का आशय - शब्दापाती, विकटापाती, गन्धापाती और माल्यवन्त, ये स्थान जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के अनुसार क्षेत्रसमास के अभिप्राय से क्रमश: हैमवत, ऐरण्यवत, हरिवर्ष और रम्यक्वर्ष क्षेत्र में हैं।
सोमणसवणे पंडगवणे — मेरुपर्वत पर सौमनसवन तीसरा और पाण्डुकवन चौथा वन है। सौच्चा से सम्बन्धित प्रश्नोत्तर
३२. सोच्चा णं भंते ! केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेज्जा सवणयाए ?
गोयमा ! सोच्चा णं केवलिस्स वा जाव अत्थेगइए केवलिपण्णत्तं धम्मं । एवं जा चेव असोच्चाए वत्तव्वया सा चेव सोच्चाए वि भाणियव्वा, नवरं अभिलावो सोच्चेति । सेसं तं चेव निरवसेसं जाव जस्स णं मणपज्जवनाणावर णिज्जाण कम्माणं खओवसमे कडे भवइ, जस्स णं केवलनाणावरणिज्जाणं कम्माणं खए कडे भवइ से णं सोच्चा केवलिस्स वा जाव उवासियाए वा केवलिपण्णत्तं धम्मं लभिज्ज सवणयाए, केवलं बोहिं बुज्झेज्जा जाव केवलनाणं उप्पाडेज्जा (सु. १३ [ २ ] ) ।
१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ४३६
आघवेज्जत्ति - आग्राहयेच्छिष्यान् अर्घापयेद् वा — प्रतिपादनतः पूजा प्रापयेत् ।
पन्नवेज्जत्ति – प्रज्ञापयेद्— भेदभणनतो बोधयेद् वा ।
परूवेज्जत्ति—उपपत्तिकथनतः ।
२. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ४३६