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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र गोयमा ! उड्ढं वा होज्झा, अहो वा होज्जा, तिरियं वा होजा। उड्ढं होज्जमाणे सद्दावइवियडावइ-गंधाइ-मालवंतपरियाएसुवट्टवेयड्डपव्वएसुहोज्जा, साहरणं पडुच्च सोमणसवणे वा पंडगवणे वा होज्जा। अहो होज्जमाणे गड्डाए वा दरीए वा होज्जा, साहरणं पडुच्च पायाले वा भवणे वा होजा। तिरियं होज्जमाणे पण्णरससु कम्मभूमीसू होज्जा, साहरणं पडुच्च अड्डाइज्जदीव-समुद्दतदेक्कदेसभाए होजा।
__[३० प्र.] भगवन् ! वे असोच्चा केवली ऊर्ध्वलोक में होते हैं, अधोलोक में होते हैं या तिर्यक्लोक में होते हैं।
_[३० उ.] गौतम ! वे उर्ध्वलोक में भी होते हैं, अधोलोक में भी होते हैं और तिर्यग्लोक में भी होते हैं। यदि उर्ध्वलोक में होते हैं तो शब्दापाती, विकटापाती, गन्धापाती और माल्यवन्त नामक वृत्त (वैताढ्य) पर्वतों में होते हैं तथा संहरण की अपेक्षा सौमनसवन में अथवा पाण्डुकवन में होते हैं। यदि अधोलोक में होते हैं तो गर्ता (अधोलोक ग्रामादि) में अथवा गुफा में होते हैं तथा संहरण की अपेक्षा पातालकलशों में अथवा भवनवासी देवों के भवनों में होते हैं। यदि तिर्यग्लोक में होते हैं तो पन्द्रह कर्मभूमि में होते हैं तथा संहरण की अपेक्षा अढाई द्वीप और समुद्रों के एक भाग में होते हैं।
३१. ते णं भंते ! एगसमएणं केवतिया होज्जा ?
गोयमा ! जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं दस। से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ असोच्चा णं केवलिस्स वा जाव अत्थेगइए केवलिपण्णत्तं धम्मंलभेज्जा सवणयाए, अत्थेगइए असोच्चा णं केवलि जाव नो लभेज्जा सवणयाए जाव अत्थेगइए केवलनाणं उप्पाडेज्जा, अत्थेगइए केवलनाणं नो उप्पाडेज्जा ।
[३१ प्र.] भगवन् ! वे असोच्चा केवली एक समय में कितने होते हैं ?
[३१ उ.] गौतम! वे जघन्य एक, दो अथवा तीन और उत्कृष्ट दस होते हैं। __ [उपसंहार-] इसलिए हे गौतम ! मैं ऐसा कहता हूँ कि केवली यावत् केवलि-पाक्षिक की उपासिका से धर्मश्रवण किये बिना ही किसी जीव को केवलिप्ररूपित धर्म-श्रवण प्राप्त होता है और किसी को नहीं होता, यावत् कोई जीव केवलज्ञान उत्पन्न कर लेता है और कोई जीव केवलज्ञान उत्पन्न नहीं कर पाता।
_ विवेचन-असोच्चा केवली का आचार-विचार, उपलब्धि एवं स्थान–२७ से ३१ सूत्र तक प्रस्तुत पाँच सूत्रों में असोच्चा केवली से सम्बन्धित निम्नोक्त प्रश्नों के उत्तर हैं? -(१) वे केवलीप्ररूपित धर्म कहते, बतलाते या प्रेरणा करते हैं ?, (२) वे किसी को प्रव्रजित या मुण्डित करते हैं ?, (३) वे सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होते हैं, यावत् सर्व दुःखों का अन्त करते हैं ?, (४) वे उर्ध्व, अधो या तिर्यग्लोक में कहाँ-कहाँ होते हैं,
१. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण) भा. १, पृ. ४१६-४१७