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नवम शतक : उद्देशक-३१ ज्ञानावरणीय कर्मों का क्षयोपशम नहीं किया है, वह केवली आदि से सुने बिना शुद्ध आभिनिबोधिकज्ञान का उपार्जन नहीं कर पाता। हे गौतम ! इसीलिए कहा जाता है कि कोई जीव यावत् (शुद्ध आभिनिबोधिकज्ञान उपार्जन कर लेता है और) कोई नहीं कर पाता है।
९. असोच्चा णं भंते ! केवलि. जाव केवलं सुयनाणं उप्पाडेज्जा?
एवं जहा आभिणिबोहियनाणस्स वत्तव्वया भणिया तहा सुयनाणस्स वि भाणियव्वा, नवरं सुयनाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे भाणियव्वे।
[९ प्र.] भगवन् ! केवली आदि से सुने बिना ही क्या कोई जीव श्रुतज्ञान उपार्जन कर लेता है ?
[९ उ.] (गौतम!) जिस प्रकार आभिनिबोधिकज्ञान का कथन किया गया है, उसी प्रकार शुद्ध श्रुतज्ञान के विषय में भी कहना चाहिए। विशेष इतना है कि यहाँ श्रुतज्ञानावरणीयकर्मों का क्षयोपशम कहना चाहिए।
१०. एवं चेव केवलं ओहिनाणं भाणियव्वं, नवरं ओहिणाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे भाणियव्वे।
[१०] इसी प्रकार शुद्ध अवधिज्ञान के उपार्जन के विषय में कहना चाहिए। विशेष यह है कि यहाँ अवधिज्ञानावरणीयकर्म का क्षयोपशम कहना चाहिए।
११. एवं केवलं मणपज्जवनाणं उप्पाडेज्जा, नवरं मणपज्जवणाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे भाणियव्वे।
[११] इसी प्रकार शुद्ध मनःपर्ययज्ञान के उत्पन्न होने के विषय में कहना चाहिए। विशेष इतना है कि मनःपर्ययज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम का कथन करना चाहिए।
१२. असोच्चा णं भंते ! के वलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केवलनाणं उप्पाडेज्जा?
एवं चेव, नवरं केवलनाणावरणिज्जाणं कम्माणं खए भाणियव्वे, सेसं तं चेवा से तेणढेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ जाव केवलनाणं उप्पाडेजा। .
[१२ प्र.] भगवन् ! केवली यावत् केवलि पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना ही क्या कोई जीव केवलज्ञान उपार्जन कर लेता है ?
[१२ उ.] पूर्ववत् यहाँ भी कहना चाहिए। विशेष इतना ही है कि यहाँ केवलज्ञानावरणीय कर्मों का क्षय कहना चाहिए। शेष सब कथन पूर्ववत् है। इसीलिए हे गौतम! यह कहा जाता है कि यावत् केवलज्ञान का उपार्जन करता।
विवेचन आभिनिबोधिक आदि ज्ञानों के उत्पादन के सम्बन्ध में निष्कर्ष यह है कि