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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र शुद्ध संवर से संवृत होता है और कोई जीव) यावत् नहीं होता?
[७-२ उ.] गौतम! जिस जीव ने अध्यवसानावरणीय कर्मों का क्षयोपशम किया है, वह केवली आदि से सुने बिना ही, यावत् शुद्ध संवर से संवृत हो जाता है, किन्तु जिसने अध्यवसानावरणीय कर्मों का क्षयोपशम नहीं किया है, वह जीव केवली आदि से सुने बिना यावत् शुद्ध संवर से संवृत नहीं होता। इसी कारण से हे गौतम ! यह कहा जाता है कि यावत् शुद्ध संवर से संवृत नहीं होता।
विवेचन केवलेणं संवरेणं संवरेन्जा-शुद्ध संवर से संवृत होता है, अर्थात् —आस्रवनिरोध करता
अज्झवसाणावरणिज्जाणं कम्माणं-संवर शब्द से यहाँ शुभ अध्यवसायवृत्ति विवक्षित है। वह भावचारित्र रूप होने से तदावरणक्षयोपशम-लभ्य है, इसलिए अध्यवसानावरणीय शब्द से यहाँ भावचारित्रावरणीयकर्म समझना चाहिए। केवली आदि से आभिनिबोधिक आदि ज्ञान-उपार्जन-अनपार्जन
८.[१] असोच्चा णं भंते ! केवलिस्स जाव केवलं आभिणिबोहियनाणं उप्पाडेज्जा ?
गोयमा ! असोच्चा णं केवलिस्स वा जाव उवासियाए वा अत्थेगइए केवलं आभिणिबोहियनाणं उप्पाडेजा, अत्थेगइए केवलं आभिणिबोहियनाणं नो उप्पाडेजा।
[८-१ प्र.] भगवन् ! केवली आदि से सुने बिना ही क्या कोई जीव शुद्ध आभिनिबोधिक ज्ञान उपार्जन कर लेता है ?
[८-१ उ.] गौतम! केवली आदि से सुने बिना कोई जीव शुद्ध आभिनिबोधिकज्ञान प्राप्त करता है और कोई जीव यावत् नहीं प्राप्त करता है।
[२] से केणढेणं जाव नो उप्पाडेज्जा ?
गोयमा ! जस्स णं आभिणिबोहियनाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ से णं असोच्चा केवलिस्स वा जाव केवलं आभिणिबोहियनाणं उप्पाडेजा, जस्स णं आभिणिबोहियनाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ से णं असोच्चा केवलिस्स वा जाव केवलं आभिणिबोहियनाणं नो उप्पाडेजा, से तेणढेणं जाव नो उप्पाडेजा।
[८-२ प्र.] भगवन् ! किस कारण से यावत् नहीं प्राप्त करता ?
[८-२ उ.] गौतम! जिस जीव ने आभिनिबोधिक-ज्ञानाबरणीय कर्मों का क्षयोपशम किया है, वह केवली आदि से सुने बिना ही शुद्ध आभिनिबोधिकज्ञान उपार्जन कर लेता है, किन्तु जिसने आभिनिबोधिक
१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ४३३