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नवम शतक : उद्देशक-२
एवं सव्वेसु दीव-समुद्देसु जोतिसियाणं भाणियव्वं जाव संयभूरमणे जाव सोभं सोभिंसु वा सोभंति वा सोभिस्संति वा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्तिः ।
॥नवम सए : बीओ उद्देसओ समत्तो॥९-२॥ [५ प्र.] भगवन्! पुष्करार्द्ध समुद्र में कितने चन्द्रों ने प्रकाश किया, प्रकाश करते हैं और प्रकाश करेंगे?
[५ उ.] (जीवाभिगमसूत्र की तीसरी प्रतिपत्ति के दूसरे उद्देशक में) समस्त द्वीपों और समुद्रों में ज्योतिष्क देवों का जो वर्णन किया गया है, उसी प्रकार स्वयम्भूरमण समुद्र पर्यन्त शोभित हुए, शोभित होते हैं और शोभित होंगे तक कहना चाहिए।
हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, (यों कह कर यावत् भगवान् गौतम विचरते
विवेचन-जीवाभिगमसूत्र का अतिदेश-प्रस्तुत द्वितीय उद्देशक में जम्बूद्वीप, लवणसमुद्र, धातकीखण्डद्वीप, कालोदसमुद्र, पुष्करवरद्वीप आदि सभी द्वीप-समुद्रों में मुख्यतया चन्द्रमा की संख्या के विषय में तथा गौणरूप से सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और ताराओ की संख्या के विषय में प्रश्न किये हैं। उनके उत्तर में जीवाभिगमसूत्र की तीसरी प्रतिपत्ति के द्वितीय उद्देशक का अतिदेश किया गया है। जीवाभिगमसूत्र के अनुसारमुख्यतया चन्द्रमा की संख्या- जम्बूद्वीप में २, लवणसमुद्र में ४, धातकीखण्डद्वीप में १२, कालोदसमुद्र में ४२, पुष्करवरद्वीप में १४४, आभ्यन्तर पुष्करार्द्ध में ७२ तथा मनुष्यक्षेत्र में १३२ एवं पुष्करोदसमुद्र में संख्यात हैं। इसके अनन्तर मनुष्यक्षेत्र के बाहर के वरुणवरद्वीप एवं वरुणोदसमुद्र आदि असंख्यात द्वीप-समुद्रों में यथासम्भव संख्यात एवं असंख्यात चन्द्रमा हैं। इसी प्रकार इन सब में सूर्य, नक्षत्र, ग्रह तथा ताराओं की संख्या भी जीवाभिगमसूत्र से जान लेनी चाहिए। इतना विशेष है कि मनुष्यक्षेत्र में जो भी चन्द्र, सूर्य, आदि ज्योतिष्कदेव हैं, वे सब चर (गति करने वाले) हैं, जब कि मनुष्यक्षेत्र के बाहर के सब अचर स्थिर हैं।'
कुछ कठिन शब्दों के अर्थ- पभासिंसु-प्रकाश किया। सोभं सोभिंसु–शोभा की या सुशोभित
नव य सया पण्णासा० इत्यादि पंक्ति का आशय-सू. २ में जाव' शब्द में आगे और 'नव' शब्द से पूर्व ‘एगं च सयसहस्सं तेत्तीसं खलु भवे सहस्साई' यह पाठ होना चाहिए, तभी यह अर्थ संगत हो १. जीवाभिगमसूत्र प्रतिपत्ति ३, उद्देशक २ वृत्ति, सू. १५३, १५५, १७५-७७, पत्र ३००, ३०३, ३२७-३३५ । २. (क) भगवती. खंड ३, (भगवानदास दोशी) पृ. १२६
(ख) भगवती. वृत्ति, पत्र ४२७