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छठा शतक : उद्देशक-१ भोगते हुए महानिर्जरा और महापर्यवसान वाले होते हैं।
दुर्विशोध्य कर्म के चार विशेषणों की व्याख्या-गाढीकयाइं—जो कर्म डोरी से मजबूत बांधी हुई सुइयों के ढेर के समान आत्मप्रदेशों के साथ गाढ़ बंधे हुए हैं, वे गाढीकृत हैं। चिक्कणीकयाई– मिट्टी के चिकने बर्तन के समान सूक्ष्म-कर्मस्कन्धों के रस के साथ परस्पर गाढ बन्ध वाले, दुर्भेद्य कर्मों को चिकने किए हुए कर्म कहते हैं । सिलिट्ठीकयाई- रस्सी से दृढ़तापूर्वक बांध कर आग में तपाई हुई सुइयों का ढेर जैसे परस्पर चिपक जाता है, वे सुइयाँ एकमेक हो जाती हैं। उसी तरह जो कर्म परस्पर एकमेक-श्लिष्ट हो (चिपक) गए हैं, ऐसे निधत्त कर्म। खिलीभूयाइं-खिलीभूत कर्म, वे निकाचित कर्म होते हैं, जो बिना भोगे, किसी भी अन्य उपाय से क्षीण नहीं होते हैं। चौबीस दण्डकों में करण की अपेक्षा साता-असाता-वेदन की प्ररूपणा
५. कतिविहे णं भंते ! करणे पण्णत्ते? गोयमा ! चउब्विहे करणे पण्णत्ते, तं जहा–मणकरणे वइकरणे कायकरणे कम्मकरणे। · [५ प्र.] भगवन् ! करण कितने प्रकार के कहे गये हैं ?
[५ उ.] गौतम ! करण चार प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं - मन-करण, वचन-करण, काय-करण, और कर्म-करण।
६.णेरइयाणं भंते ! कतिविहे करणे पण्णत्ते ?
गोयमा ! चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा—मणकरणे वइकरणे कायकरणे कम्मकरणे। एवं पंचेंदियाणं सव्वेसिं चउव्विहे करणे पण्णत्ते। एगिंदियाणं दुविहे कायकरणे य कम्मकरणे य। विगलेंदियाणं वइकरणे कायकरणे कम्मकरणे।
[६ प्र.] भगवन् ! नैरयिक जीवों के कितने प्रकार के करण कहे गए हैं ?
[६ उ.] गौतम ! नैरयिक जीवों के चार प्रकार के करण कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं-मन-करण, वचन-करण, काय-करण और कर्म-करण । इसी प्रकार समस्त पंचेन्द्रिय जीवों के ये चार प्रकार के करण कहे गए हैं। एकेन्द्रिय जीवों के दो प्रकार के करण होते हैं - काय-करण और कर्म-करण । विकलेन्द्रिय जीवों के तीन प्रकार के करण होते हैं, यथा - वचन-करण, काय-करण और कर्म-करण।
७.[१] नेरइया णं भंते ! किं करणतो वेदणं वेदेति ? अकरणतो वेदणं वेदेति ? गोयमा ! नेरइया णं करणओ वेदणं वेदेति, नो अकरणओ वेदणं वेदेति।
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(क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्रांक २५१ (ख) भगवती., हिन्दी विवेचन भा. २ पृ. ९३६ से ९३८ तक