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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र शीघ्र ही विनष्ट हो जाती है, इसी प्रकार, हे गौतम ! श्रमण-निर्ग्रन्थों के यथाबादर कर्म भी शीघ्र ही विध्वस्त हो जाते हैं और वे यावत् महानिर्जरा एवं महापर्यवसान वाले होते हैं।
इसी कारण से ऐसा कहा जाता है कि जो महावेदना वाला होता है, वह महानिर्जरा वाला होता है, यावत् वही श्रेष्ठ है जो प्रशस्तनिर्जरा वाला है।
विवेचन–महावेदना एवं महानिर्जरा वाले जीवों के विषय में विभिन्न दृष्टान्तों द्वारा निर्णय - प्रस्तुत तीन सूत्रों में (सू. २ से ४ तक) में महावेदनायुक्त एवं महानिर्जरायुक्त कौन-से जीव हैं और वे क्यों हैं ? इस विषय में विविध-साधक-बाधक दृष्टान्तों द्वारा निर्णय दिया गया है।
महावेदना और महानिर्जरा की व्याख्या - उपसर्ग आदि के कारण उत्पन्न हुई विशेष पीड़ा महावेदना और कर्मों का विशेष रूप से क्षय होना महानिर्जरा है। महानिर्जरा और महापर्यवसान का भी महावेदना और महानिर्जरा की तरह कार्य-कारणभाव है। जो महानिर्जरा वाला नहीं होता, वह महापर्यवसान (कर्मों का विशेष रूप से सभी ओर से अन्त करने वाला) नहीं होता।।
क्या नारक महावेदना और महानिर्जरा वाले नहीं होते ? - मूल पाठ में इस प्रश्न को उठा कर समाधान मांगा है कि नैरयिक महावेदना वाले होते हुए महानिर्जरा वाले होते हैं या श्रमण निर्ग्रन्थ ? भगवान् ने कीचड़ से रंगे और खंजन से रंगे, वस्त्रद्वय के दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट कर दिया है कि जो महावेदना वाले होते हैं, वे सभी महानिर्जरा वाले नहीं होते हैं। जैसे नारक महावेदना वाले होते हैं, उन्हें अपने पूर्वकृत गाढबन्धनबद्ध निधत्त-निकाचित कर्मों के फलस्वरूप महावेदना होती है, परन्तु वे उसे समभाव से न. सहकर रो-रो-कर, विलाप करते हुए सहते हैं, जिससे वह महावेदना महानिर्जरा रूप नहीं होती, बल्कि अल्पतर, अप्रशस्त, अकामनिर्जरा होकर रह जाती है। इसके विपरीत भ. महावीर जैसे श्रमण-निर्ग्रन्थ बड़े-बड़े उपसार्गों व परीषहों को समभाव से सहन करने के कारण महानिर्जरा और वह भी प्रशस्त निर्जरा कर लेते हैं। इस कारण वेदना महती हो या अल्प, उसे समभाव से सहनेवाला ही भगवान् महावीर की तरह प्रशस्त महानिर्जरा एवं महापर्यवसान वाला हो जाता है। श्रमण-निर्ग्रन्थों के कर्म शिथिलबन्धन वाले होते हैं, जिन्हें वे शीघ्र ही स्थितिघात और रसघात आदि के द्वारा विपरिणाम वाले कर देते हैं। अतएव वे शीघ्र विध्वस्त हो जाते हैं। इस सम्बंध में दो दृष्टान्त दिये गए हैं – सूखे घास का पूला अग्नि में डालते ही तथा तपे हुए तवे पर पानी की बूंद डालते ही वे दोनों शीघ्र विनष्ट हो जाते हैं; वैसे ही श्रमणों के कर्म शीघ्र नष्ट हो जाते हैं।
निष्कर्ष – यहाँ उल्लिखित कथन – 'जो महावेदना वाला होता है, वह महानिर्जरा वाला होता है' किसी विशिष्ट जीव की अपेक्षा से समझना चाहिए, नैरयिक आदि क्लिष्ट कर्म वाले जीवों की अपेक्षा से नहीं तथा जो महानिर्जरा वाला होता है, वह महावेदनावाला होता है, यह कथन भी प्रायिक समझना चाहिए क्योंकि सयोगीकेवली नामक तेरहवें गुणस्थान में महानिर्जरा होती है, परन्तु महावेदना नहीं भी होती, उसकी वहाँ भजना है।
निष्कर्ष यह है कि जिनके कर्म सुधौतवस्त्रवत् सुविशोध्य होते हैं, वे महानुभाव कैसी भी वेदना को