________________
३५८
व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र को तप्त करते हैं।
सूर्य के दूर और निकट दिखाई देने के कारण का स्पष्टीकरण-सूर्य समतल भूमि से ८०० योजन ऊँचा है, किन्तु उदय और अस्त के समय देखने वालों को अपने स्थान की अपेक्षा निकट दृष्टिगोचर होता है, इसका कारण यह है कि उस समय उसका तेज मन्द होता है। मध्याह्न के समय देखने वालों को अपने स्थान की अपेक्षा दूर मालूम होता है, इसका कारण यह है कि उस समय उसका तीव्र तेज होता है। इन्हीं कारणों से सूर्य निकट और दूर दिखाई देता है। अन्यथा उदय, अस्त और मध्याह्न के समय सूर्य तो समतलभूमि से ८०० योजन ही दूर रहता है।
सूर्य की गति : अतीत,अनागत या वर्तमान क्षेत्र में? - यहाँ क्षेत्र के साथ अतीत, अनागत और वर्तमान विशेषण लगाए गए हैं। जो क्षेत्र अतिक्रान्त हो गया है, अर्थात् —जिस क्षेत्र को सूर्य पार कर गया है, उसे 'अतीतक्षेत्र' कहते हैं। जिस क्षेत्र में सूर्य अभी गति कर रहा है, उसे 'वर्तमानक्षेत्र' कहते हैं और जिस क्षेत्र में सूर्य गमन करेगा, उसे 'अनागतक्षेत्र' कहते हैं। सूर्य न अतीतक्षेत्र में गमन करता है, न ही अनागतक्षेत्र में गमन करता है, क्योंकि अतीतक्षेत्र अतिक्रान्त हो चुका है और अनागतक्षेत्र अभी आया नहीं है, इसलिए वह वर्तमान क्षेत्र में ही गति करता है।
सूर्य किस क्षेत्र को प्रकाशित, उद्योतित और तप्त करता है ?—सूर्य अतीत और अनागत तथा अस्पृष्ट और अनवगाढ़ क्षेत्र को प्रकाशित, उद्योतित और तप्त नहीं करता, परन्तु वर्तमान, स्पृष्ट और अवगाढ़ क्षेत्र को प्रकाशित, उद्योतित और तप्त करता है; अर्थात्—इसी क्षेत्र में क्रिया करता है, अतीत, अनागत आदि में नहीं।
सूर्य की ऊपर, नीचे और तिरछे प्रकाशित आदि करने की सीमा—सूर्य अपने विमान से सौ योजन ऊपर (ऊर्ध्व) क्षेत्र को तथा ८०० योजन नीचे के समतल भूभाग से भी हजार योजन नीचे अधोलोक ग्राम तक नीचे के क्षेत्र को और सर्वोत्कृष्ट (सबसे बड़े) दिन में चक्षुःस्पर्श की अपेक्षा ४७२६३ योजन तक तिरछे क्षेत्र को उद्योतित, प्रकाशित और तप्त करते हैं।' मानुषोत्तरपर्वत के अन्दर-बाहर के ज्योतिष्क देवों और इन्द्रों का उपपात-विरहकाल
४६. अंतो णं भंते ! माणुसुत्तरस्स पव्वयस्स जे चंदिम-सूरिय-गहगण-णक्खत्त-तारारूवा ते णं भंते ! देवा किं उड्डोववन्नगा?
जहा जीवाभिगमे तहेव निरवसेसं जाव उक्कोसेणं छम्मासा।
[४६ प्र.] भगवन् ! मानुषोत्तरपर्वत के अन्दर जो चन्द्र, सूर्य, ग्रहगण, नक्षत्र और तारारूप देव हैं, वे क्या ऊर्ध्वलोक में उत्पन्न हुए हैं ?
[४६ उ.] गौतम ! जिस प्रकार जीवाभिगमसूत्र में कहा गया है, उसी प्रकार उनका उपपात विरहकाल
१. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक ३९३
(ख) वियाहपण्णत्तिसुत्तं, (मूलपाठ टिप्पणयुक्त), पृ. ३७७-३७८