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अष्टम शतक : उद्देशक-८
३५९ जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास है'; यहाँ तक कहना चाहिए।
४७. बहिया णं भंते ! मणुसुत्तरस्स० जहा–जीवाभिगमे जाव इंदवाणे णं भंते ! केवतियं कालं उववाएणं विरहिए पन्नत्ते ?
गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं छम्मासा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति०।
॥अट्ठमसए : अट्ठमो उद्देसो समत्तो॥ [४७ प्र.] भगवन् ! मानुषोत्तरपर्वत के बाहर जो चन्द्रादि देव हैं, वे ऊर्ध्वलोक में उत्पन्न हुए हैं ? इत्यादि जिस प्रकार जीवाभिगमसूत्र में कहा गया है, उसी प्रकार यहाँ भी भगवन् ! इन्द्रस्थान कितने काल तक उपपात-विरहित कहा गया है ? तक कहना चाहिए।
__ [४७ उ.] गौतम ! जघन्यतः एक समय, उत्कृष्टत: छह मास बाद दूसरा इन्द्र उस स्थान पर उत्पन्न होता है। इतने काल तक इन्द्रस्थान उपपात-विरहित होला है।
'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरण करते हैं।
विवेचन—मानुषोत्तरपर्वत के अन्दर-बाहर के ज्योतिष्क देवों एवं इन्द्रों का उपपात-विरहकाल—प्रस्तुत दो सूत्रों में से प्रथम सूत्र में मानुषोत्तरपर्वत के अन्दर के ज्योतिष्क देवों एवं इन्द्रों के उपपातविरहकाल का और द्वितीयसूत्र में मानुषोत्तरपर्वत के बाहर के ज्योतिष्क देवों एवं इन्द्रों के उपपात-विरहकाल का जीवाभिगमसूत्र के अतिदेशपूर्वक निरूपण है।'
॥अष्टम शतक : अष्टम उद्देशक समाप्त।
१. (क) वियाहपण्णत्तिसुत्तं, (मूलपाठ टिप्पणयुक्त), पृ.३७८-३७९
(ख) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक ३९३-३९४ (ग) जीवाभिगमसूत्र, प्रतिपत्ति ३, पत्रांक ३४५-३४६ (आगमोदय.) (अ) (प्र.) ....... कप्पोववन्नगा विमाणोववन्नगा चारोववन्नगा चारद्विइया गइरइया गइसमावन्नगो? (उ.) गोयमा ! ते णं देवा नो उड्ढोववनगा, नो कप्पोववनगा, विमाणोववनगा, चारोववनगा, नो
चारट्ठिइया, गइरइया गइसमावन्नगा' इत्यादि। (आ) (प्र.) इंदट्ठाणे णं भंते ! केवइय कालं विरहिए उववाएणं?,
(उ.) गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं छम्मास त्ति।' (ई)'....(प्र.).....जे चन्दिम......... तेणं भंते ! किं उड्ढोववन्नगा? (उ.) गोयमा ! ते णं देवो नो उड्ढोववनगा, नो कप्पोववनगा,विमाणोववन्नगा, नो चारोववन्नगा
चारद्विइया, नो गइरइया, नो गइसमावन्नगा' इत्यादि।