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अष्टम शतक : उद्देशक-८
३५३ है। क्योंकि जिस समय शीतपरीषह का वेदन करता है, उस समय उष्णपरीषह का वेदन नहीं करता और जिस समय उष्णपरीषह का वेदन करता है, उस समय शीतपरीषह का वेदन नहीं करता। जिस समय चर्यापरीषह का वेदन करता है, उस समय शय्यापरीषह का वेदन नहीं करता और जिस समय शय्यापरीषह का वेदन करता है, उस समय चर्यापरिषह का वेदन नहीं करता।
__विवेचन–बावीस परीषहों की अष्टकर्मों में समावेश की तथा सप्तविधिबन्धक आदि के परीषहों की प्ररूपणा–प्रस्तुत १२ सूत्रों (सू. २३ से ३४ तक) में बावीस परीषहों के सम्बंध में दो तथ्यों का निरूपण किया गया है—(१) किस कर्म में कितने परीषहों का समावेश होता है ? अर्थात् किस-किस कर्म के उदय में कौन-कौन से परीषह उत्पन्न होते हैं ? तथा (२) सप्तविधबन्धक, षड्विधबन्धक, अष्टविधिबन्धक, एकविधबन्धक और अबन्धक आदि में कितने-कितने परीषहों की सम्भावना है।
परीषह : स्वरूप और प्रकार-आपत्ति आने पर भी संयममार्ग से भ्रष्ट न होने तथा उसमें स्थिर रहने के लिए एवं कर्मों की निर्जरा के लिए जो शारीरिक, मानसिक कष्ट साधु, साध्वियों को सहन करने चाहिए, वे "परीषह" कहलाते हैं। ऐसे परीषह २२ हैं। यथा—(१) क्षुधापरीषह-भूख का कष्ट सहना, संयममर्यादानुसार एषणीय, कल्पनीय निर्दोष आहार न मिलने पर जो क्षुधा का कष्ट सहना होता है, उसे क्षुधापरीषह कहते हैं। (२) पिपासापरीषह-प्यास का परीषह, (३) शीतपरीषह-ठंड का परीषह, (४) उष्णपरीषह-गर्मी का परीषह, (५) दंश-मशकपरीषह-डांस, मच्छर, खटमल, जूंचींटी आदि का परीषह, (६)अचेलपरीषह-वस्त्राभाव, वस्त्र की अल्पता या जीर्णशीर्ण, मलिन आदि अपर्याप्त वस्त्रों के सद्भाव में होने वाला परीषह,(७)अरतिपरीषह-संयममार्ग में कठिनाईयाँ, असुविधाएं एवं कष्ट आने पर अरति-अरुचि या उदासी या उद्विग्नता से होने वाला कष्ट, (यह अनुकूल परीषह है।) (९)चर्यापरीषहग्राम, नगर आदि के विहार से या पैदल चलने से होने वाला कष्ट,(१०)निषद्या या निशीथिका परीषहस्वाध्याय आदि करने की भूमि में तथा सूने घर आदि में ठहरने से होने वाला मानसिक कष्ट,(११)शय्यापरीषह-रहने के (आवास-) स्थान की प्रतिकूलता से होने वाला मानसिक कष्ट;(१२) आक्रोशपरीषहकठोर, धमकीभरे वचन या डाट-फटकार से होने वाला, (१३) वधपरीषह-मारने-पीटने आदि से होने वाला कष्ट, (१४) याचनापरीषह-भिक्षा माँग कर लाने में होने वाला मानसिक कष्ट, (१५)अलाभपरीषह-भिक्षा आदि न मिलने पर होने वाला कष्ट, (१६) रोगपरीषह-रोग के कारण होने वाला कष्ट, (१७) तृणस्पर्शपरीषह—घास के बिछौने पर सोने से शरीर में चुभने से या मार्ग में चलते समय तृणादि पैर में चुभने से होने वाला कष्ट, (१८)जल्लपरीषह-कपड़ों या तन पर मैल, पसीना आदि जम जाने से होने वाली ग्लानि,(१९) सत्कार-पुरस्कारपरीषह-जनता द्वारा सम्मान, सत्कार, प्रतिष्ठा, यश, प्रसिद्धि आदि न मिलने से होने वाला मानसिक खेद अथवा सत्कार-सम्मान मिलने पर गर्व का अनुभव करना, (२०) प्रज्ञापरीषह–प्रखर अथवा विशिष्टबुद्धि या गर्व करना, (२१) ज्ञान या अज्ञान परीषह-विशिष्ट ज्ञान होने पर उसका अहंकार करना, ज्ञान (बुद्धि) की मन्दता होने से मन में दैन्यभाव आना और (२२) अदर्शन या दर्शन परीषह-दूसरे मत वालों की ऋद्धि-वृद्धि एवं चमत्कार-आडम्बर आदि देख कर सर्वज्ञोक्त सिद्धान्त से विचलित होना चा सर्वज्ञोक्त तत्त्वों के प्रति शंकाग्रस्त होना।