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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र ___चार कर्मों में बावीस परीषहों का समावेश-कर्म प्रकृतियाँ मूलतः आठ हैं। उनमें से ४ कर्मोंज्ञानावरणीय, वेदनीय, मोहनीय और अन्तराय में २२ परीषहों का समावेश होता है। इसका तात्पर्य यह है कि इस चार कर्मों के उदय से पूर्वोक्त २२ परीषह उत्पन्न होते हैं। प्रज्ञापरीषह और ज्ञान या अज्ञानपरीषह ज्ञानावरणीयकर्म के उदय से होते हैं । वेदनीयकर्म के उदय से क्षुधा आदि ११ परीषह होते हैं। इन परीषहों के कारण पीड़ा उत्पन्न होना-वेदनीयकर्म का उदय है। मोहनीयकर्म के उदय से ८ परीषह होते हैं। दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से अदर्शन या दर्शन परीषह और चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से अरति, अचेल आदि७ परीषह होते हैं और अन्तरायकर्म के उदय से अलाभ परीषह होता है।
सप्तविधि आदि बन्धक के साथ परीषहों का साहचर्य-आयुकर्म को छोड़कर शेष ७ अथवा आयुबंधकाल में ८ कर्मों को बांधने वाले जीव के सभी २२ परीषह हो सकते हैं; किन्तु ये वेदते हैं—अधिकसे-अधिक एक साथ बीस परीषह, क्योंकि शीत और उष्ण, चर्या और निषद्या अथवा चर्या और शय्या ये दोनों परस्पर विरुद्ध होने से एक का ही एक समय में अनुभव होता है। षड्विधबन्धक सराग छद्मस्थ के १४ परीषह बताए गए हैं। वे मोहनीयकर्मजन्य ८ परीषहों के सिवास समझने चाहिए। किन्तु उनमें वेदन हो सकता है १२ परीषहों का ही। पूर्वोक्त रीति से चर्या और शय्या, या चर्या और निषद्या, अथवा शीत और उष्ण दोनों का एक साथ वेदन नहीं होता। एक वेदनीयकर्म के बन्धक छद्मस्थ वीतराग (ग्यारहवें-बारहवें गुणस्थानवर्ती) जीव के भी १४ परीषह (मोहनीयकर्म के ८ परीषहों को छोड़कर) होते हैं, किन्तु वे वेदते हैं अधिक-से-अधिक १२ परीषह ही। तेरहवें गुणस्थानवर्ती सयोगी भवस्थकेवली एकविध बन्धक के और चौदहवें गुणस्थानवर्ती अबन्धक अयोगी भवस्थकेवली के एकमात्र वेदनीयकर्म के उदय से होने वाले ११ परीषह (जो कि.पहले बताए गए हैं।) होते हैं, किन्तु उनमें से एक साथ ९ का ही वेदन पूर्वोक्त रीत्या संभव है। उदय, अस्त और मध्याह्न के समय में सूर्यों को दूरी और निकटता के प्रतिभास आदि की प्ररूपणा
३५. जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे सूरिया उग्गमणमुहत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति, मझंतियमुहत्तंसि मूले य दूरे य दीसंति, अत्थमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति ?
हंता गोयमा ! जंबुद्दीवे णं दीवे सूरिया उग्गमणमुहुत्तंसि दूरे य तं चेव जाव अत्थमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति।
[३५ प्र.] भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में क्या दो सूर्य, उदय के मुहूर्त (समय) में दूर होते हुए भी निकट (मूल में) दिखाई देते हैं, मध्याह्न के मुहूर्त (समय) में निकट (मूल) में होते हुए दूर दिखाई देते हैं और अस्त होने के मुहूर्त (समय) में दूर होते हुए भी निकट (मूल में) दिखाई देते हैं?
[३५ उ.] हाँ, गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में दो सूर्य, उदय के समय दूर होते हुए भी निकट दिखाई
१. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक ३८९ से ३९२
(ख) तत्त्वार्थसूत्र अ.९