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________________ ३४६ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र बंध : स्वरूप एवं विवक्षित दो प्रकार—जैसे शरीर में तेल आदि लगाकर धूल में लोटने पर उस व्यक्ति के शरीर पर धूल चिपक जाती है, वैसे ही मिथ्यात्व अविरति, प्रमाद, कषाय और योग से जीव के प्रदेशों में जब हलचल होती है, तब जिस आकाश में आत्मप्रदेश होते हैं, वहीं के अनन्त-अनन्त तद्-तद्-योग्य कर्मपुद्गल जीव के प्रत्येक प्रदेश के साथ बद्ध हो जाते हैं। दूध-पानी की तरह कर्म और आत्मप्रदेशों के एकमेक होकर मिल जाना बंध है। बेड़ी आदि का बंधन द्रव्यबंध है, जबकि कर्मों का बंध भावबंध है। विवक्षाविशेष से यहाँ कर्मबंध के दो प्रकार कहे गए हैं। ऐर्यापथिक और साम्परायिक। केवल योगों के निमित्त से होने वाले सातावेदनीयरूप बंध को ऐर्यापथिककर्मबंध कहते हैं। जिनसे चतुर्गतिकसंसार में परिभ्रमण हो, उन्हें सम्पराय-कषाय कहते हैं, सम्परायों (कषायों) के निमित्त से होने वाले कर्मबंध को साम्परायिककर्मबंध कहते हैं। यह प्रथम से दशम गुणस्थान तक होता है। ऐर्यापथिककर्मबंध : स्वामी, कर्ता, बंधकाल, बन्धविकल्प तथा बंधांश—(१) स्वामीएर्यापथिककर्म का बंध नारक, तिर्यञ्च और देवों को नहीं होता, यह केवल मनुष्यों को ही होता है। मनुष्यों में भी ग्यारहवें (उपशान्तमोह), बारहवें (क्षीणमोह) और तेरहवें (सयोगीकेवली) गुणस्थानवी मनुष्यों को ही होता है। ऐसे मनुष्य पुरुष और स्त्री दोनों ही होते है। जिसने पहले ऐर्यापथिककर्म का बंध किया हो, अर्थात्जो ऐर्यापथिक कर्मबन्ध के द्वितीय-तृतीय आदि समयवर्ती हो, उसे पूर्वप्रतिपन्न कहते हैं। पूर्वप्रतिपन्न स्त्री और पुरुष बहुत होते हैं, और दोनों प्रकार के केवली (स्त्रीकेवली और पुरुषकेवली) सदा पाए जाते हैं। इसलिए इसका भंग नहीं होता। जो जीव ऐर्यापथिक कर्मबंध के प्रथम समयवर्ती होते हैं, वे प्रतिपद्यमान कहलाते हैं। इनका विरह सम्भव है। इसलिए एकत्व और बहुत्व को लेकर इनके (स्त्री और पुरुष के) असंयोगी ४ भंग और द्विकसंयोगी ४ भंग, यों कुल ८ भंग बनते हैं। ऐर्यापथिक कर्मबंध के सम्बंध में जो स्त्री, पुरुष, नपुंसक आदि को लेकर प्रश्न किया गया है, वह लिंग की अपेक्षा समझना चाहिए, वेद की अपेक्षा नहीं, क्योंकि ऐर्यापथिक कर्मबन्धकर्ता जीव उपशान्तवेदी या क्षीणवेदी ही होते हैं। इसीलिए इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है—अपगतवेद-वेद के उदय से रहित जीव ही इसे बांधते हैं। पूर्वप्रतिपन्नक अवेदी जीव सदा बहुत होते हैं, इसलिए उनके विषय में बहुवचन ही दिया गया है, जबकि प्रतिपद्यमान अवेदी जीव में विरह होने से एकत्व आदि की सम्भावना के कारण एकवचन और बहुवचन दोनों विकल्प कहे गए हैं। ___जो जीव गतकाल में स्त्री था, किन्तु अब वर्तमानकाल में अवेदी हो गया है, उसे स्त्रीपश्चात्कृत कहते हैं, इसी तरह पुरुषपश्चात्कृत और नपुंसकपश्चात्कृत का अर्थ भी समझा लेना चाहिए। इन तीनों की अपेक्षा यहाँ वेदरहित एक जीव या अनेक जीवों के द्वारा ऐर्यापथिककर्मबंधसम्बन्धी २६ भंगों को प्रस्तुत करके प्रश्न किया है। इनमें असंयोगी ६ भंग, द्विकसंयोगी १२ भंग और त्रिकसंयोगी ८ भंग हैं । इस प्रश्न का उत्तर भी २६ भंगों द्वारा दिया गया है। कालिक ऐपिथिक कर्मबन्ध–विचार-इसके पश्चात् ऐर्यापथिक कर्मबंध के सम्बंध में भूत, वर्तमान और भविष्य काल-सम्बन्धी आठ भंगों द्वारा प्रश्न किया गया है, जिसका उत्तर 'भवाकर्ष' और
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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