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________________ अष्टम शतक : उद्देशक-८ ३३९ धारणा और जीत, इन पांच व्यवहारों में से जो व्यवहार हो, उसे उस उस प्रकार से व्यवहार चलाना (प्रवृत्तिनिवृत्ति करना) चाहिए। ९. से किमाहु भंते ! आगमबलिया समणा निग्गंथा ? इच्चेयं पंचविहं ववहारं जया जया जहिं जहिं तया तया तहिं तहिं अणिस्सिओवस्सितं सम्म ववहरमाणे समणे निग्गंथे आणाए आराहए भवइ। [९ प्र.] भगवन् ! आगमबलिक श्रमण निर्ग्रन्थ (पूर्वोक्त पंचविध व्यवहार के विषय में) क्या कहते हैं? [९ उ.] (गौतम) ! इस प्रकार इन पंचविध व्यवहारों में से जब-जब और जहाँ-जहाँ जो व्यवहार सम्भव हो, तब-तब और वहाँ-वहाँ उससे, अनिश्रितोपाश्रित (राग और द्वेष से रहित) हो कर सम्यक् प्रकार से व्यवहार (प्रवृत्ति-निवृत्ति) करता हुआ श्रमण निर्ग्रन्थ (तीर्थंकरों की) आज्ञा का आराधक होता है। विवेचन—निर्ग्रन्थ के लिए आचरणीय पंचविध व्यवहार एवं उनकी मर्यादा—प्रस्तुत दो सूत्रों में साधु-साध्वी के लिए साधुजीवन में उपयोगी पंचविध व्यवहारों तथा उनकी मर्यादा का निरूपण किया गया है। व्यवहार का विशेषार्थ—यहाँ आध्यात्मिक जगत् में व्यवहार का अर्थ मुमुक्षुओं की यथोचित सम्यक् प्रवृत्ति-निवृत्ति है, अथवा उसका कारणभूत जो ज्ञानविशेष है उसे भी व्यवहार कह सकते हैं। आगम आदि पंचविध व्यवहार का स्वरूप (१)आगमव्यवहार—जिससे वस्तुतत्त्व का यथार्थ ज्ञान हो, उसे 'आगम' कहते हैं । केवलज्ञान, मन:पर्यवज्ञान, अवधिज्ञान, चौदह पूर्व, दस पूर्व, और नौ पूर्व का ज्ञान ‘आगम' कहलाता है। आगमज्ञान से प्रवर्तित प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप व्यवहार—आगमव्यवहार कहलाता है। (२) श्रुत-व्यवहार-शेष आचारप्रकल्प आदि ज्ञान 'श्रुत' कहलाता है। श्रुत से प्रवर्तित व्यवहार श्रृतव्यवहार है। यद्यपि पूर्वो का ज्ञान भी श्रृतरूप है, तथापि अतीन्द्रियार्थ-विषयक विशिष्ट ज्ञान का कारण एवं सातिशय ज्ञान होने से 'आगम' की कोटि में रखा गया है। (३) आज्ञाव्यवहार—दो गीतार्थ साधु अलगअलग दूर देश में विचरते हैं, उनमें से एक का जंघाबल क्षीण हो जाने से विहार करने में असमर्थ हो जाए, वह अपने दूरस्थ गीतार्थ साधु के पास अगीतार्थ साधु के माध्यम से अपने अतिचार या दोष आगम की सांकेतिक गूढ़ भाषा में कहकर या लिखकर भेजता है और गूढभाषा में कही हुई या लिखी हुई आलोचना सुन-जान कर वे गीतार्थ मुनि भी संदेशवाहक मुनि के माध्यम से उक्त अतिचार के प्रायश्चित द्वारा की जाने वाली शुद्धि का संदेश आगम की गूढ़भाषा में कह या लिखकर देते हैं। यह आज्ञाव्यवहार का स्वरूप है। (४) धारणाव्यवहार–किसी गीतार्थ मुनि ने या गुरुदेव ने द्रव्य क्षेत्र काल और भाव की अपेक्षा जिस अपराध में जो प्रायश्चित दिया है, उसकी धारणा वैसे अपराध में उसी प्रायश्चित का प्रयोग करना धारणाव्यवहार है। धारणाव्यवहार प्रायः आचार्य-परम्परागत होता है। (५) जीतव्यवहार-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पात्र (पुरुष) और प्रतिसेवना का तथा संहनन और धैर्य आदि की हानि का विचार करके जो प्रायश्चित दिया जाए वह जीतव्यवहार है। अथवा अनेक गीतार्थ मुनियों द्वारा आचरित, असावध, आगम से अबाधित एवं निर्धारित
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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