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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र ज्ञान-दर्शन चारित्रगुणों से विभूषित समस्त श्रमणों का समुदाय 'संघ' कहलाता है। कुल, गण या संघ के विपरीत आचरण करने वाले क्रमशः कुलप्रत्यनीक, गणप्रत्यनीक और संघप्रत्यनीक कहलाते हैं।
अनुकम्प्य-प्रत्यनीक का स्वरूप-अनुकम्पा करने योग्य-अनुकम्प्य साधु तीन हैं—तपस्वी, ग्लान (रुग्ण) और शैक्ष। इन तीन अनुकम्प्य साधुओं की आहारादि द्वारा सेवा नहीं करके इनके प्रतिकूल आचरण या व्यवहार करने वाले साधु क्रमशः तपस्वीप्रत्यनीक, ग्लानप्रत्यनीक और शैक्षप्रत्यनीक कहलाते हैं।
श्रुत-प्रत्यनीक का स्वरूप–श्रुत (शास्त्र) के विरुद्ध कथन, प्रचार, अवर्णवाद आदि करने वाला, शास्त्रज्ञान को निष्प्रयोजन अथवा शास्त्र को दोषयुक्त बताने वाला श्रुत-प्रत्यनीक है। श्रुत तीन प्रकार का होने के कारण श्रुत-प्रत्यनीक के भी क्रमशः सूत्रप्रत्यनीक अर्थप्रत्यनीक और तदुभयप्रत्यनीक, ये तीन भेद हैं।
भाव-प्रत्यनीक का स्वरूप–क्षायकादि भावों के प्रतिकूल आचरणकर्ता भावप्रत्यनीक है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र, ये तीन भाव हैं। इन तीनों के विरुद्ध आचरण, दोषदर्शन, अवर्णवाद आदि करना क्रमशः ज्ञानप्रत्यनीक, दर्शनप्रत्यनीक और चारित्रप्रत्यनीक है। निर्ग्रन्थ के लिए आचरणीय पंचविध व्यवहार, उनकी मर्यादा और व्यवहारानुसार प्रवृत्ति का फल
८. कइविहे णं भंते ! ववहारे पण्णत्ते ?
गोयमा ! पंचविहे ववहारे पण्णत्ते, तं जहा—आगम-सुत-आणा-धारणा-जीए। जहा से तत्थ आगमे सिया, आगमेणं ववहारं पट्टवेजा। णो य से तत्थ आगमे सिया; जहा से तत्थ सुते सिया, सुएणं ववहारं पट्ठवेजा। णो य से तत्थ सुए सिया; जहा से तत्थ आणा सिया, आणाए ववहारं पट्टवेजा। णो य से तत्थ आणा सिया; जहा से तत्थ धारणा सिया, धारणाए ववहारं पट्ठवेजा। णो य से तत्थ धारणा सिया; जहा से तत्थ जीए सिया जीएणं ववहारं पट्ठवेजा। इच्चेएहिं पंचहिं ववहारं पट्ठवेज्जा, तं जहा—आगमेणं सुएणं आणाए सुएणं आणाए धारणाए जीएणं। जहा जहा से आगमे सुए आणा धारणा जीए तहा तहा ववहारं पट्ठवेज्जा।
[८ प्र.] भगवन् ! व्यवहार कितने प्रकार का कहा गया है ?
[८ उ.] गौतम ! व्यवहार पांच प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार-(१) आगम-व्यवहार, (२) श्रुतव्यवहार, (३) आज्ञाव्यवहार, (४) धारणाव्यवहार और (५) जीतव्यवहार । इन पांच प्रकार के व्यवहारों में से जिस साधु के पास आगम (केवलज्ञान, मन:पर्यवज्ञान, अवधिज्ञान, चौदह पूर्व, दस पूर्व अथवा नौ पूर्व का ज्ञान) हो, उसे उस आगम से व्यवहार (प्रवृत्ति-निवृत्ति) करना चाहिए। जिसके पास आगम न हो, उसे श्रुत से व्यवहार चलाना चाहिए। जहाँ श्रुत न हो वहाँ आज्ञा से उसे व्यवहार चलाना चाहिए। यदि आज्ञा भी न हो तो जिस प्रकार की धारणा हो, उस धारणा से व्यवहार चलाना चाहिए। कदाचित् धारणा न हो तो जिस प्रकार का जीत हो, उस जीत से व्यवहार चलाना चाहिए। इस प्रकार इन पाँचों-आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और
१. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक ३८२