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________________ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 'दिया जाता हुआ' वर्तमानकालिक व्यापार है और 'दत्त' भूतकालिक है, अत: वर्तमान और भूत दोनों अत्यन्त भिन्न होने से दीयमान (दिया जाता हुआ) दत्त नहीं हो सकता, दत्त ही 'दत्त' कहा जा सकता है, यह अन्यतीर्थिकों की भ्रान्ति थी। इसी का निराकण करते हुए स्थविरों ने कहा— हमारे मत से क्रियाकाल और निष्ठाकाल, इन दोनों में भिन्नता नहीं है। जो 'दिया जा रहा है, वह 'दिया ही गया' समझना चाहिए । 'दीयमान' अदत्त है, यह मत तो अन्यतीर्थिक का है, जिसे स्थविरों ने उनके समक्ष प्रस्तुत किया था । स्थविरों पर अन्यतीर्थिकों द्वारा पुनः आक्षेप और स्थविरों द्वारा प्रतिवाद ३३२ १६. तए णं ते अन्नउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी — तुब्भे णं अज्जो ! तिविहं तिविहेणं अस्संजय जाव एगंतबाला यावि भवह। [१६ अन्य आक्षेप] - तत्पश्चात् उन अन्यतीर्थिकों ने उन स्थविर भगवन्तों से कहा—आर्यो ! (हम कहते हैं कि) तुम ही त्रिविध-त्रिविध असंयत, अविरत यावत् एकान्तबाल हो ! १७. तणं ते रा भगवंतो ते अन्नउत्थिया एवं वयासी—केणं कारणेणं अम्हे तिविहं तिविहेणं जव एतबाला यावि भवामो ? [१७ प्रतिप्रश्न ] – इस पर उन स्थविर भगवन्तों ने उन अन्यतीर्थिकों से (पुनः) पूछा आर्यो ! किस कारण से हम त्रिविध-त्रिविध यावत् एकान्तबाल हैं ? १८. तणं ते अन्नउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी - तुब्भे णं अज्जो ! रीयं रीयमाणा पुढविं पेच्चेह अभिहणह वत्तेहे लेसेह संघाएह संघट्टेह परितावहे किलामेह उवद्दवेह, तए णं तुब्भे पुढविं पेच्चमाणा जाव उवद्दवेमाणा तिविहं तिविहेणं असंजयअविरय जाव एगंतबाला यावि भवह । [१८ आक्षेप ] -तब उन अन्यतीर्थिकों ने स्थविर भगवन्तों से यों कहा - " आर्यो ! तुम गमन करते हुए पृथ्वीकायिक जीवों को दबाते ( आक्रान्त करते) हो, हनन करते हो, पादाभिघात करते हो, उन्हें भूमि के साथ श्लिष्ट (संघर्षित) करते (टकराते) हो, उन्हें एक दूसरे के ऊपर इकट्ठे करते हो, जोर से स्पर्श करते हो, उन्हें परितापित करते हो, उन्हें मारणान्तिक कष्ट देते हो और उपद्रवित करते-मारते हो। इस प्रकार पृथ्वीकायिक जीवों को दबाते हुए यावत् मारते हुए तुम त्रिविध-त्रिविध असंयत, अविरत यावत् एकान्तबाल हो।" १९. तए णं ते थेरा भगवंतो ते अन्नउत्थिय एवं वयासीनो खलु अज्जो ! अम्हे रीयं रीयमाणा पुढविं पेच्चेमो अभिहणामो जाव उवद्दवेमो, अम्हे णं अज्जो ! रीयं रीयमाणा कार्य वा जोगं वा रियं वा पडुच्च संदेसेणं वयामो, पएसं पएसेणं वयामो, तेणं अम्हे देसं देसेणं वयमाणा पएसं पएसेणं वयमाणा नो पुढविं पेच्चेमो अभिहणामो जाव उवद्दवेमो, त अम्हे पुढविं अपच्चेमाणा अणभिहणेमाणा जाव अणुवद्दवेमाणा तिविहं तिविहेणं संजय जाव एगंतपंडिया यावि भवामो, भेणं अजो ! अप्पणा चेव तिविहं तिविहेणं अस्संजय जाव बाला यावि भवह। १. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक ३८१
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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