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अष्टम शतक : उद्देशक-७
३३१ ___१२. तए णं ते अन्नउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी–केणं कारणेणं अज्जो ! अम्हे तिविहं जाव एगंतबाला यावि भवामो ?
[१२ प्र.] - तत्पश्चात् उन अन्यतीर्थिकों ने स्थविर भगवन्तों से इस प्रकार पूछा—आर्यो ! हम किस कारण से (कैसे) त्रिविध-त्रिविध............" यावत् एकान्तबाल हैं ?
१३. तए णं ते थेरा भगवंतो ते अन्नउत्थिए एवं वयासी-तुब्भे णं अज्जो ! अदिन्नं गेण्हह, अदिन्नं भुंजह, अदिन्नं साइजह, तए णं अजो ! तुब्भे अदिन्नं गे० जाव एगंतबाला यावि भवह।
. [१३ उ.] -इस पर उन स्थविर भगवन्तों ने उन अन्यतीर्थिकों से यों कहा—आर्यो ! तुम लोग अदत्त को ग्रहण करते हो, अदत्त भोजन करते हो, और अदत्त की अनुमति देते हो; इसलिए हे आर्यो ! तुम अदत्त को ग्रहण करते हुए यावत् एकान्तबाल हो।
१४. तए णं ते अन्नउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी–केण कारणेणं अज्जो ! अम्हे अदिन्नं गेण्हमो जाव एगंतबाला यावि भवामो ? ___[१४ प्रतिवाद] तब उन अन्यतीर्थिकों ने उन स्थविर भगवन्तों से इस प्रकार पूछा—आर्यो ! हम कैसे अदत्त को ग्रहण करते हैं, यावत् जिससे कि हम एकान्तबाल हैं ?
१५. तए णं ते थेरा भगवन्तो ते अन्नउत्थिए एवं वयासी—तुब्भे णं अजो ! दिज्जमाणे अदिन्ने तं चेव जाव गाहावइस्स णं तं, णो खलु तं तुब्भं, तए णं तुब्भे अदिन्न गेण्हह, तं चेव जाव एगंतबाला यावि भवह।
[१५ प्रत्युत्तर] - यह सुन कर उन स्थविर भगवन्तों ने उन अन्यतीर्थिकों से इस प्रकार कहाआर्यो ! तुम्हारे मत में दिया जाता हुआ पदार्थ नहीं दिया गया' इत्यादि कहलाता है, यह सारा वर्णन पहले कहे अनुसार यहाँ कहना चाहिए; यावत् वह पदार्थ गृहस्थ का है, तुम्हारा नहीं; इसलिए तुम अदत्त का ग्रहण करते हो, यावत् पूर्वोक्त प्रकार से तुम एकान्तबाल हो।
विवेचन–अन्यतीर्थिकों के साथ अदत्तादान को लेकर स्थविरों के वाद-विवाद का वर्णनप्रस्तुत १५ सूत्रों में अन्यतीर्थिकों द्वारा स्थविरों पर अदत्तादान को लेकर एकान्तबाल के आक्षेप से प्रारम्भ हुआ विवाद स्थविरों द्वारा अन्यतीर्थिकों को दिये गए प्रत्युत्तर तक समाप्त किया गया है।'
अन्यतीर्थिकों की भ्रान्ति–अन्यतीर्थिकों ने इस भ्रान्ति से स्थविर मुनियों पर आक्षेप किया था कि श्रमणों का ऐसा मत है कि दिया जाता हुआ पदार्थ नहीं दिया गया, ग्रहण किया जाता हुआ, नहीं ग्रहण किया गया और पात्र में डाला जाता हुआ पदार्थ, नहीं डाला गया; माना गया है। किन्तु जब स्थविरों ने इसका प्रतिवाद किया और उनकी इस भ्रान्ति का निराकरण 'चलमाणे चलिए' के सिद्धान्तानुसार किया, तब वे अन्यतीर्थिक निरुत्तर हो गए, उलटे उनके द्वारा किया गया आक्षेप उन्हीं पर लागू हो गया।
१. वियापहण्णत्ति सुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भाग १