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________________ ३३० व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र तुम अदत्त का ग्रहण करते हो, यावत् अदत्त की अनुमति देते हो; अतः तुम अदत्त का ग्रहण करते हुए यावत् एकान्तबाल हो। ९. तए णं ते थेरा भगवंतो ते अन्नउत्थिए एवं वयासी–नो खलु अज्जो ! अम्हे अदिन्नं गिण्हामो, अदिन्नं भुंजामो, अदिन्नं सातिजामो, अम्हे णं अजो ! दिन्नं गेहमो, दिन्नं भुंजामो, दिन्नं सातिजामो, तए णं अम्हे दिन्नं गेण्हमाणा दिन्नं भुंजमाणा दिन्नं सातिजमाणा तिविहं तिविहेणं संजयविरयपडिहय जहा सत्तमसए ( स. ७ उ. २ सु. १[२]) जाव एगंतपंडिया यावि भवामो। [९. प्रतिवाद]- यह सुनकर उन स्थविर भगवन्तों ने उन अन्यतीर्थिकों से इस प्रकार कहा 'आर्यो ! हम अदत्त का ग्रहण नहीं करते, न अदत्तं को खाते हैं, और न ही अदत्त की अनुमति देते हैं । हे आर्यो ! हम तो दत्त (स्वामी द्वारा दिये गए) पदार्थ को ग्रहण करते हुए, दत्त का भोजन करते हुए और दत्त की अनुमति देते हुए त्रिविध-त्रिविध संयत, विरत, पापकर्म के प्रतिनिरोधक, पापकर्म का प्रत्याख्यान किये हुए हैं। जिस प्रकार सप्तमशतक (द्वितीय उद्देशक सू.१) में कहा है, तदनुसार हम यावत् एकान्तपण्डित हैं।' १०. तए णं ते अननउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी—केण कारणेणं अजो ! तुम्हे दिन्नं गेहह जाव दिन्नं सातिजह, तए णं तुब्भे दिन्नं गेण्हमाणा जाव एगंतपंडिया या वि भवह ? [१० वाद] - तब उन अन्यतीर्थिकों ने उन स्थविर भगवन्तों से इस प्रकार कहा—'तुम किस कारण (कैसे या किस प्रकार) दत्त को ग्रहण करते हो, यावत् दत्त की अनुमति देते हो, जिससे दत्त का ग्रहण करते हुए यावत् तुम एकान्तपण्डित हो?' ११. तए णं ते थेरा भगवंतो ते अन्नउत्थिए एवं वयासी—अम्हे णं अजो ! दिजमाणे दिने, पडिगहेजमाणे पडिग्गहिए, निसिरिजमाणे निसटे। अहं णं अज्जो ! दिजमाणं पडिग्गहं असंपत्तं एत्थ णं अंतरा केइ अवहरेजा, अम्हं णं तं, णो खलु तं गाहावइस्स, तए णं अम्हे दिन्नं गेण्हामो दिन्नं भुंजामो, दिन सातिजामो, तए णं अम्हे दिन्नं गेण्हमाणा जाव दिन्नं सातिजमाणा तिविहं तिविहेणं संजय जाव एगंतपंडिया यावि भवामो। तुब्भे णं अज्जो ! अप्पणा चेव तिविहं तिविहेणं अस्संजय जाव एगंतबाला यावि भवह। [११. प्रतिवाद] - इस पर उन स्थविर भगवन्तों ने उन अन्यतीर्थिकों से इस प्रकार कहा—'आर्यो ! हमारे सिद्धान्तानुसार-दिया जाता हुआ पदार्थ, दिया गया'; ग्रहण किया जाता हुआ पदार्थ ग्रहण किया' और पात्र मे डाला जाता हुआ पदार्थ डाला गया' कहलाता है। इसीलिए हे आर्यो ! हमें दिया जाता हुआ पदार्थ हमारे पात्र में नहीं पहुँचा (पड़ा) है, इसी बीच में कोई व्यक्ति उसका अपहरण कर ले तो 'वह पदार्थ हमारा अपहृत हुआ' कहलाता है, किन्तु वह पदार्थ गृहस्थ का अपहृत हुआ,' ऐसा नहीं कहलाता है। इस कारण से हम दत्त को ग्रहण करते हैं, दत्त आहार करते हैं और दत्त की ही अनुमति देते हैं। इस प्रकार दत्त को ग्रहण करते हुए यावत् दत्त की अनुमति देते हुए हम त्रिविध-त्रिविध संयत, विरत यावत् एकान्तपण्डित हैं, प्रत्युत, हे आर्यो ! तुम स्वयं त्रिविध-त्रिविध असंयत, अविरत, यावत् एकान्तबाल हो।
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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