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________________ अष्टम शतक : उद्देशक-७ ३२९ सातवें शतक के द्वितीय उद्देशक (सू.१) में कहा गया है, तदनुसार कहा; यावत् तुम एकान्त बाल (अज्ञानी) भी हो। ५. तए णं ते थेरा भगवंतो ते अन्नउत्थियए एवं वयासी–केणं कारणेणं अजो ! अम्हे तिविहं तिविहेणं अस्संजयअविरय जाव एगंतबाला यावि भवामो ? [५ प्र.] इस पर उन स्थविरों भगवन्तों ने उन अन्यतीर्थिकों से इस प्रकार पूछा-'आर्यो ! किस कारण से हम त्रिविध-त्रिविध असंयत, यावत् एकान्तबाल हैं ? ६. तए णं ते अन्नउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी–तुब्भेणं अज्जो ! अदिन्नं गेण्हह, अदिन्न भुंजह, अदिन्नं सातिजह। तए णं तुब्भे अदिन्नं गेण्हमाणा, अदिन्नं भुंजमाणा, अदिन्नं सातिजमाणा तिविहं तिविहेणं अस्संजयअविरय जाव एगंतबाला यावि भवह।। [६ उ.] तदनन्तर उन अन्यतीर्थिकों ने स्थविर भगवन्तों से इसप्रकार कहा-हे आर्यो ! तुम अदत्त (किसी के द्वारा नहीं दिया हुआ) पदार्थ ग्रहण करते हो, अदत्त का भोजन करते हो और अदत्त का स्वाद लेते हो, अर्थात्—अदत्त (ग्रहणादि) की अनुमति देते हो। इस प्रकार अदत्त का ग्रहण करते हुए, अदत्त का भोजन करते हुए और अदत्त की अनुमति देते हुए तुम त्रिविध-त्रिविध असंयत, अविरत यावत् एकान्तबाल हो। ७. तए णं ते थेरा भगवंतो ते अन्नउत्थिए एवं वयासी—केणं कारणेणं अजो ! अम्हे अदिन्नं गेण्हामो, अदिन्नं भुंजामो, अदिन्नं सातिजामो, तए णं अम्हे अदिन्नं गेण्हमाणा, जाव अदिन्नं सातिजमाणा तिविहं तिविहेणं अस्संजय जाव. एगंतबाला यावि भवामो ? [७ उ.] तदनन्तर उन स्थविरों भगवन्तों ने उन अन्यतीर्थिकों से इस प्रकार पूछा— आर्यो ! हम किस कारण से (क्योंकर या कैसे) अदत्त का ग्रहण करते हैं, अदत्त का भोजन करते हैं और अदत्त की अनुमति देते हैं, जिससे कि हम अदत्त का ग्रहण करते हुए यावत् अदत्त की अनुमति देते हुए त्रिविध-त्रिविध असंयत, अविरत यावत् एकान्तबाल हैं ? ८. तए णं ते अन्नउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी—तुम्हाणं अजो ! दिज्जमाणे अदिन्ने, पडिगहेजमाणे अपडिगहिए, निसिरिजमाणे अणिसटे, तुब्भे णं अजो ! दिजमाणं पडिग्गहगं असंपत्तं एत्थ णं अंतरा केइ अवहरिजा, गाहावइस्स णं तं, नो खलु तं तुब्भं, तए णं तुब्भे अदिन्नं गेण्हह जाव अदिन्नं सातिजह तए णं तुब्भे अदिन्नं गेण्हमाणा जाव एगंतबाला यावि भवह। [८ उ.] इस पर उन अन्यतीर्थिकों ने स्थविर भगवन्तों से इस प्रकार कहा—'हे आर्यो ! तुम्हारे मत में दिया जाता हुआ पदार्थ, नहीं दिया गया', ग्रहण किया जाता हुआ, 'ग्रहण नहीं किया गया', तथा (पात्र में) डाला जाता हुआ पदार्थ, 'नहीं डाला गया; ऐसा कथन है; इसलिए हे आर्यो ! तुमको दिया जाता हुआ पदार्थ, जब तक पात्र में नहीं पड़ा, तब तक बीच में से ही कोई उसका अपहरण कर ले तो तुम कहते हो—'वह उस गृहपति के पदार्थ का अपहरण हुआ;' 'हमारे पदार्थ का अपहरण हुआ,' ऐसा तुम नहीं कहते। इस कारण से "मालह
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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